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तपकर गमों की आग में कुंदन बनी हूँ मैं…..

sach ka aaina
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तपकर गमों की आग में कुंदन बनी हूँ मैं…..


“सुनी” आहत सी लेकिन खामोश बैठी अपनी हथेलियों को निहार रही थी, उसके अन्तर्मन में बहुत कुछ सिमट रहा था l चुपचाप लवों को समेटे वो अपनी हथेलियों को एकटक निहारे जा रही थी और उधर बेताब मेहँदी का कोन अलग उतावला हो रहा था, कि कब मैं इन रेखाओं को छूकर अपना रंग बदल सकूँगा l एक ठंडी सी साँस लेते हुए “सुनी” सोच में पड गई l आज उसकी शादी की सालगिरह है, बीते कई वर्षों में इस मेहँदी के कोन की नुकीली नोक “सुनी” के हाथों को जख्मी करती आ रही है, लेकिन मेहँदी की सुर्खियत के आगे पता ही न चला, क्यूंकि इसकी सुखन और दुखन दोंनों से ही सुनी को बेहद प्रेम था l यही मेहँदी तो एक सहारा थी उसकी l डबडबाई आँखों से हर बार “सुनी” दिल में दबे हज़ार दुःख और परेशानियां, दिल की सारी उलझनें इन लकीरों में उतार कर डिजाइन में तब्दील कर लेती थीं.
उसे याद आने लगे वो बीते दिन, “जब वो यही कोई रही होगी 13 साल की l पापा ने उसे महंगे से सैंडिल दिलाये थे और साथ ही बड़े भाई ने एक सलवार कुरता सूट, जो कि वक्त को देखते हुए बहुत ही महंगा था l हरे और मिक्स कलर का सूट और पापा की दिलाई हुई ब्लैक कलर की सैंडिल मुझे अपने प्राणों से प्रिय थी l उन दिनों कन्नौज सिटी में शिमला टेलर की दूकान थी उस समय वो टेलर कन्नौज का सबसे महंगा टेलर था l पापा ने उसी टेलर से वो सूट सिलवाया था l जब सूट सिलकर आया था, तो उसे पहनकर पूरे घर के लोगों को दिखाया था l पढ़ते पढ़ते अचानक उठकर उसे देखने जाती थी, कोमल मन सूट को लेकर सहमा सा रहता था l इसलिए बार बार देखती थी कि कहीं किसी ने खराब तो नही कर दिया l मेरी डर की भवना को देखकर पापा मम्मी खूब हसते थे l मेरा कोमल मन ये सोचता कि मेरा सूट और सैंडिल कहीं खराब न हो जाये, इस डर से मैं उसे कम पहना करती थी l

मुझे याद है उन दिनों मेरी चचेरी बहिन आई हुई थी, जो कि मेरे कपड़ों और सामान को लेकर बहुत चिड्ती थी, रेलवे का बंगला होने के कारण बंगले के चारों तरफ बहुत सारी जमीन थी, जिसमें फुलवारी लगी हुई थी और बंगले के पीछे मम्मी सब्जी बगैरह भी लगवाती थी वही पर करीब 15 से 20 केले के पेड़ लगे हुए थे, जो कि एक घनी जगह में तब्दील हो चुके थेl मेरी चचेरी बहिन ने सबकी आँख बचाकर मेरी सैंडिल को केले के पेड़ में फैंक दिया l जब मुझे सैंडिल ना मिली तो मैं बहुत रोई थी l यही कोई दो महीने बाद केले के पेड़ों की जब छटाई हुई, तो उसमें वो सैंडिल सड़ी हुई अवस्था में मिली थी l

बिना गलती के बहिन ने मेरी सैंडिल को मुझसे दूर करके, मुझे जो दंड दिया था वो सीधे मेरे दिल पर खरोंच छोड़ गया l मेरा कसूर इतना था कि मैं अपने पापा की दुलारी थी l पापा का मेरे प्रति असीमित प्रेम उसे बर्दास्त नही होता था l उसे लगता था कि ताऊ जी सिर्फ उसके हैं और मुझे लगता कि मेरे पापा सिर्फ मेरे हैं, मेरे भाई सिर्फ मेरे हैं l उसके पापा और उसके भाई अलग हैं l मैं अपने पापा और भाइयों को बाँट नहीं सकती थी l मेरे रोने और चिल्लाने पर घरवालों ने मुझे ही चुप करा दिया था l मम्मी बोली ज्यादा मत बोला करो, वो तुम्हारी बड़ी बहिन है l दूसरी सैंडिल ला दी जाएगी, लेकिन मम्मी ने उसे एक बार भी नहीं डांटा l मेरी शादी के बाद ये बात आज समझ आई, कि बात सैंडिल की नहीं थी, बल्कि बात तो ये थी, माँ ने मुझे ही क्यूँ डांट कर चुप करा दिया था, क्यूंकि वो मेरी मम्मी के देवर यानि मेरे चाचा जी की बेटी थी l इसलिए उसकी गलती को माँ ने नजर अंदाज कर दिया था l आज भी हमारे समाज में कोई भी महिला अपनी ससुराल में अपने देवर या जेठ के बच्चों की गलती पर अगर कुछ बोलती है तो दोषी वही होती है क्यूंकि फिर एक ही बात सामने आती है कि, फलाने की बहु ने मेरी लड़की या लड़के को डांटा था l दो दिन के लिए गई थी मेरी लड़की और बहुत बुरा व्यवहार किया उसकी ताई ने या चाची ने l और ऊपर से पति का शंका की दृष्टि से देखना, पत्नी को भीतर तक आहत कर जाता है l चाहें फिर गलती पूरी की पूरी उस लड़की की ही क्यूँ ना हो l ये वाकया मेरे घरवालो को तो याद भी नहीं होगा, लेकिन समय के साथ मेरे दिल पर पड़ी खरोचें बढ्ती ही जा रही थीं l”

इस वाकये ने “सुनी” को रिश्तों की एक नई परिभाषा सिखाई, वो समझ चुकी थी, कि जब दुल्हन सहमी सी पराये घर आती है तो वहां की हर बात को अपनाती है l कहते हैं कि पिता के घर से उखड़ा पौधा, पिया के घर में थोडा तो समय लेगा ही अपनी जड़ें जमाने में l समय बीतता गया, लेकिन “सुनी” की जड़ें उथली की उथली ही रहीं l पति का परिवार “सुनी” को पूरी तरह नहीं अपना पाया, अगर अपना पाता तो रिश्तों के बीच अपना पराया नहीं होता और मेरी बेटी, तेरी बेटी नामक ये खटास कब की समाप्त हो गई होती l “सुनी” के पति का स्वभाव तो कुल मिलाकर ठीक ही था, लेकिन अपने घरवालों को लेकर पति का अहम् सर चढ़कर बोलता था l “सुनी” के बचपन से ही मन मारने की आदत कह लो या फिर समझौता कह लो, जिसने गृहस्थी की गाडी को पटरी से उतरने नहीं दिया l “सुनी” ने पति की सच बात को भी सच कहा और झूठ बात को भी सच कहा l जितना मायके वालों का ख्याल रखा उससे कहीं ज्यादा ससुराल वालों को तवज्जो दी l मायके और ससुराल के बीच कभी भेदभाव का अंकुर नही फूटने दिया l लेकिन वक्त किसी ने नही देखा, कभी कभी बिना गलती के भी दंड भोगना पड़ता है l हर बात में “सुनी” झुक जाती, ताकि कोई विवाद न हो l “सुनी” को ये एहसास हो गया था, कि ससुराल की दहलीज के दरवाजे नीचे होते हैं उसे झुककर ही चलाना पड़ेगा वरना गाज उस पर ही गिरेगी l वो सदैव झुकती ही तो आई है l कहते हैं कि शारीरिक प्रताड़ना से मानसिक प्रताड़ना अधिक दुखदाई होती है l

आज शादी के इतने सालों बाद भी “सुनी” उतनी ही व्यथित है जितनी नई नवेली दुल्हन बनकर आई थी तब थी l “सुनी” व्यथित हो मेहँदी से बार बार यही सवाल करती, कि क्या आज भी तेरा रंग यूँ ही सुर्ख होकर मेरी हथेलियों पर निखरेगा l जैसे उस दिन निखरा था l ठीक आज ही के दिन साल 30 पहले इन नर्म हथेलियों ने मेहँदी के सुर्ख रंग को सहेजा था और दूसरे दिन ही परत दर परत मेहँदी झड़कर बदरंग हो गई थी l बरसों से माँ से यही सुनती आ रही थी, कि शादी एक ऐसा बंधन है, जो दो दिलों, दो आत्माओं को एक सूत्र में बांधता है।
शादी के बाद ससुराल में जब “सुनी” का पहला कदम पड़ा, तो उसका मन कई उम्मीदों के साथ ही घबराहट से भी भरा हुआ था। मन में कई सवाल उठते और सिमट जाते, लेकिन जवाब देने के लिए कोई मौजूद नहीं होता। जरा-सी भूल-चूक हुई नही कि “सुनी” के घर के संस्कारों पर सवाल उठने लगते l “सुनी” प्रतिदिन अपनी जेठानी और रिश्‍तेदारों की मानसिक प्रताड़ना और दबाव का शिकार होती रही, उस समय वह इन सबका खुलकर विरोध नहीं कर पाती थी फलतः “सुनी” के मन में कई प्रकार की धारणायें पनपती रहीं, ससुराल में तो वह मूक और निरीह हो जाती थी। वह प्रताड़ित होती थी, पर उन भावों को अभिव्‍यक्‍त नहीं कर पाती थी, और व्‍यक्‍त करे भी तो किस से ? ऐसे भाव उसके मन के भीतरी कोने में जा बैठते। क्रोध का अतिरेक और भावनाओं का आवेग सब कुछ भीतर ही उमड़ता रहता था l जिस तरह उपलों पर रोटी सेंकती स्‍त्री का हृदय भी कभी-कभी अंगारों पर सिंककर फूल उठता है। ठीक उसी तरह “सुनी” का ह्रदय भी इतनी प्रताड़ना झेलकर दहक रहा था l प्रताड़ना देने वाला कोई और नही उसकी अपनी जेठानी और कुछ जेठानी की तरह सोचने वाले वो लोग थे, जो कभी इस परिवार को सुखी नही देखना चाहते थे, इसलिए वो “सुनी” की जेठानी को बरगला देते और दूर से मजे लेते, लेकिन इस बात को जेठानी समझ नही पाती थी l आज तक “सुनी” ये ना समझ पाई, कि सब कुछ तो वो अपनी जेठानी के हिसाब से ही करती थी, उन्हें सम्मान देने में भी कभी कोई कमी नही की, तो आखिर कारण क्या था जो जेठानी उसे मानसिक प्रताड़ना देती रहती l किसी के भी कहने भर से वो “सुनी” को झूठा साबित कर देती l “सुनी” के लिए वो बड़ी जेठानी कम हिटलर ज़्यादा थी। 40 पार होने के बावजूद भी वो किसी बिगड़ैल किशोर सा अहंकार लिए फिरती थी l “सुनी” पर तरह-तरह की पाबंदियां, काम सही होने पर भी ताने और गलती होने पर तो “सुनी” से ऐसा बर्ताव होता था, जैसे उनकी वजह से दुनिया में प्रलय आ गयी हो ।

वैसे परिवार तो सास ससुर, जेठ जिठानी, देवर देवरानी और उनके बच्चों सहित भरा पूरा होता है इन रिश्तों का सुख बहुत ही सुखद होता है l इसी सुख की लालसा हर नई दुल्हन को होती है l और अगर ये रिश्ते छल कपट कर दुल्हन को असीमित पीड़ा देने लगें, तो पति पत्नी के रिश्ते दरकने लगते हैं l “सुनी” के जेठ सुलझे विचारों के होने के कारण हमेशा सत्य का साथ देते रहे और इसी बजह से “सुनी” का परिवार बंधा रहा l एक वक्त आया जब उन्होंने भी “सुनी” के पक्ष में बोलना छोड़ दिया था, कारण उनके बोलने से जेठानी घर में कोहराम मचा देती थी l क्यूंकि “सुनी” की जेठानी के दिल में प्रतिस्पर्धा व द्वेष की भावना पनप चुकी थी, जिसे दूर कर पाना “सुनी” के बस में नही था l

“सुनी” ससुराल में खुद को कभी महसूस ही नहीं कर पाई, सपने टूट जाने के बाद भी खुश रहने की कोशिश करती रहती, लेकिन, अब तो हद हो गयी थी उसके पति ने भी उसका साथ छोड़ दिया था उसने भी कभी उसके साथ सहानूभूति नहीं जताई, “सुनी” अकेले में सोचती कैसा है ये वक्त ? जिसने हमें तोड़ के रख दिया l जिसके लिए मैं अपनी सारी दुनिया छोड़कर आई, वही इंसान हमारे बारे में नहीं सोचता l इंसान का दर्द तब हद से बढ़ जाता है जब उसके पास दर्द बाँटने वाला कोई नहीं रह जाता l

कहते हैं संबंध जब सालने लगें, चुभने लगें, सिसकियों में तब्दील होने लगें, तो भला कैसे कोई सब्र करे? कब तक इन्हें ढोता रहे। कब तक सुबकता रहेगा? कभी तो बांध टूटेगा ही, और “सुनी” का भी बांध टूट चुका था l पति की निगाहों में गलत साबित ना हो जाये, इसलिए “सुनी” भी अपनी जेठानी को लाख सच कहती रहती, कि दीदी मैं गलत नही हूँ, मैंने नही कहा है और ना मैंने ये काम किया है, पर पति को लगता कि “सुनी” जवाब दे रही है जिससे “सुनी” उलटे डांट खा जाती, जिसका नतीजा ये हुआ कि पति पत्नी के रिश्ते एक पटरी पर चल तो रहे हैं, लेकिन उसकी रातें करवटों में और दिन अंधेरो में सिमटने लगे | बीती यादों में खोई हुई “सुनी” को अचानक सरसराहट की आवाज़ सुनाई देती है और वो चौंककर बैठ जाती है l मेहँदी के कोन को देखकर, “सुनी” बोली, कि सुन ऐ मेहँदी के कोन ! आज मैं तुझसे मेहँदी नही लगाउंगी, क्यूंकि तू सुर्खियत तो देता है लेकिन, तेरी नुकीली नोक अब मेरे ह्रदय को छलनी करने लगी है, इसलिए अब मैं मेहँदी घोलूंगी और फिर बड़ा सा गोला बनाउंगी, ताकि पूरी हथेली सुर्ख हो जाये l अब मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती l मैं घुट घुट कर नही जीना चाहती हूँ l सुनी ने उसी समय ये प्रतिज्ञा की, कि इस परिस्थिति मैं भी मुझे वो मुकाम हासिल करना है, जिससे मैं अपने वजूद की पहचान इस संसार को करा सकूँ l इतनी प्रताड़नाओं से गुजरने के बाद “सुनी” ने अपना लक्ष्य निर्धारित किया l अतीत के कडुवे संसार से वापस निकलकर “सुनी” ने अपने लक्ष्य पर आँख रखकर मज़बूती से, अपनी मेहनत और बुद्धि के बल पर वो मुकाम हासिल किया है, जिसकी राह काँटों भरी थी परन्तु अंत फूलों सी खुशबू सा l जेठानी से दूरी बनाकर उच्च शिक्षा प्राप्त की, और अपने मन के मुताबिक जॉब करते हुए देश की सेवा कर रही है l छोटा बड़ा हर तबके का व्यक्ति उसका सम्मान करता है, उसकी विलक्षण प्रतिभा को पहचानता है l

आज “सुनी” का स्थान उस ऊँचाई पर है, जहाँ पहुचने के लिए उसने बहुत त्याग किये, उसे ये पता था कि वहॉँ पहुँचता वही है, जिसके अन्तर मे आत्म-विश्वास होता है,  निगाह मे ऊँचाई होती है ओर हृदय में सबके लिए प्रेम और सहानुभूति का सागर उमड़ता रहता है। “सुनी” के करीबी लोग कहते हैं, कि गंगा नदी की पवित्र और कल-कल धारा और हिमालय की घाटी अपने अद्भुत नैसर्गिक सुन्दरता के कारण जिस तरह व्यक्ति को आकर्षित करती रहती है, ठीक उसी तरह “सुनी” का ‘उत्साह और उमंग’ शक्तियों का एक स्रोत है। व्यक्ति को अपने दुर्भाग्य को कोसने से बेहतर है कि हम मेहनत करके चीज़ो को बदले और अपनी ज़िन्दगी में सुधर लाये | मेहनत के अभाव में मानसिक शक्तियाँ परिपूर्ण होते हुए भी किसी काम में प्रयुक्त नहीं हो पातीं।  कहते हैं कि, जिस परिवार में सुख, शान्ति और संतोष विद्यमान हो वह स्वर्ग के समान है। इसके विपरीत जिस घर में कलह, अशांति और असन्तोष हो वह नर्क के समान होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं।  कभी कभी आज भी “सुनी” की कलम दर्द से कुंठित हो सुलगती है l अपनी जिन्दगी का उसने जो सफर तय किया था, उस राह में आने वाली कुंठाएँ उसके साथ आज भी चिपकी हुई हैं और यदा-कदा उसकी लेखनी से झरती रहती हैं। “सुनी की लेखनी अपने पीछे सवाल छोड़ जाती है, कि आखिर उसका कसूर क्या था? जिन संबंधों पर उसने भरोसा किया, आखिर उन्होंने ही क्यों उसकी जिंदगी में शूल बो दिए?

सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक
इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़

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