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“माँ” परमात्मा की स्वयं एक गवाही है…

sach ka aaina
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“माँ” परमात्मा की स्वयं एक गवाही है…

कहते हैं गुरुकुल में शिक्षा केवल सैद्धांतिक नही होती थी, बल्कि व्यवहार और वास्तविकता का भी शिक्षा से उतना ही संबंध होता था, जितना कि सैद्धांतिक अध्यन और अध्यापन का होता था l वैसे आज के युग में भी गुरु और शिष्य का रिश्ता समर्पण के आधार पर टिका होता है। जीवन समर को पार करने के लिए सद्गुरु रूपी सारथी का विशेष महत्व होता है। कहते हैं शिष्य के लिए तो गुरु साक्षात् भगवान ही होता है। वह समय समय पर समुचित मार्गदर्शन कर शिष्य को आगे बढ़ाता रहता है। खासकर आध्यात्मिक सफलता की दिशा में बढ़ना हो तो गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य रूप से लेना पड़ता है। भारत में हजारों साल तक गुरु शिष्य परंपरा फलती-फूलती रही और आगे बढ़ती रही है। हमारी संस्कृति में गुरु अपने शक्तिशाली सूक्ष्म ज्ञान को अटूट विश्वास, पूर्ण समर्पण और गहरी घनिष्ठता के माहौल में अपने शिष्यों तक पहुंचाते थे। परंपरा का मतलब होता है ऐसी प्रथा जो बिना किसी छेड़ छाड़ और बाधा के चलती रहे। दूसरे शब्दों में कहें तो यह ज्ञान बांटने की अटूट श्रृंखला है।
एक दिन गुरु जी अपने शिष्यों को माँ की अहमियत को समझा रहे थे l बोले कि, बच्चे की पहली गुरु उसकी माँ होती है, ज्यूँ ज्यूँ बच्चा बड़ा होता है उसे दुनियां की पहचान कराने वाली उसकी माँ और गुरु होते हैं l जब बच्चा बाहर की दुनिया में कदम रखता है तो भले ही वो संसार की चकाचौंध में व्यस्त हो जाए, लेकिन वो सदैव अपनी माँ के आंचल की छाया का प्यासा रहता है l क्या आप जानते हैं कि माँ भगवान से भी बढ्कर क्यूँ है ? क्यूंकि भगवान तो हमारे नसीब में सुख और दुख दोनो देकर भेजते हैं, लेकिन हमारी माँ हमें सिर्फ़ और सिर्फ़ सुख ही देना चाहती है.
प्रेम की पहली अनुभूति माँ के सानिध्य मे होती  है और पूरे जीवन वैसी प्रेम की अनुभूति शायद कभी नही मिलती क्यूंकि, माँ परमात्मा की स्वयं एक गवाही है,  माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है, माँ स्नेह की मूर्ति और ममता की धारा है l यानि कुल मिलाकर हम अगर शब्द हैं, तो वह पूरी भाषा है “माँ की बस यही परिभाषा हैं”
वो कहते हैं कि…….
जब कोई चोट उभर आती है, तो हमेशा माँ ही याद आती है
गोदी में खेलता है इक लाल, तो देख माँ मुस्कुराती है
मैं हूँ हैरान, क्यों दुनियां मन्दिर और मस्जिद में जाती है…..

एक शाम गुरु जी ने यूँ ही मजाक में  गुरुकुल में पढने वाले शिष्यों से कहा, कल के दिन जो शिष्य  स्वर्ग से  मिट्टी लेकर आएगा, मैं उसे इनाम के तौर पर गुरु माता के हाँथ का बना हुआ भोजन खिलवाऊंगा l अगले दिन गुरु जी ने सभी शिष्यों से पूंछा, क्या कोई शिष्य स्वर्ग से मिट्टी लाया है   ? गुरु जी की बात सुनकर सभी बालक शांत हो जाते हैं, लेकिन उनमें से एक बालक उठकर गुरु जी के पास आकर कहता है, लीजिये गुरु जी मैं लाया हूँ स्वर्ग से मिटटी….!
गुरु जी उस बालक को डांटते हुए कहते हैं, वत्स ! क्या तुम मुझे बेवकूफ़ समझते हो l
कहाँ से लाये हो ये मिट्टी..?
बालक डरते डरते बोला, गुरु जी मैं तडके सुबह उठा, और अपनी माँ के पैरों के नीचे की धूल लेकर अपने माथे लगाईं और बची हुई आपके पास लाया हूँ l मेरे लिए अपनी माँ के चरणों की धूल स्वर्ग की मिटटी से बढ़कर है l…….
गुरु जी की ऑंखें नम हो गई, एक छोटे से बालक ने उनकी आत्मा को भाव विभोर कर दिया l
इसलिए माँ शब्द की पवित्रता तथा उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को पहचानिये यूँ रिश्तों को बेवजह बाँटने वाले इन संबोधनों से दूर ही रहिये । और माँ के प्रति अपना सही उत्तरदायित्व निभाकर उसकी झोली खु‍‍शियों से भर दीजिये । कहते हैं कि……

“हर खतरे से बच्चे को बचाती है माँ, ढाल बनती है कभी तलवार बन जाती है माँ”

मैंने एक जगह पढ़ा था कि…एक दिन भगवान ने माँ से सवाल पूछा, कि अगर आपके कदमो से जन्नत ले ली जाएं और कुछ माँगनेँ को कहा जाएं तो आप क्या माँगोगेँ ?
माँ ने बहूत खुबसूरत जवाब दिया…कि मैँ अपनी औलाद का नसीब अपने हाथो से लिखने का हक मांगूंगी, क्योँकी अपनी औलाद की ख़ुशी के आगे मेरे लिए हर जन्नत छोटी है lवह माँ जो पहले एक बेटी, बहन, बीवी, बहू और फिर माँ बनकर अपनी पूरी जीवनभर की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाती है। उसकी इस महिमा का शब्दों में वर्णन करना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि हर चीज का एक महत्व होता है वैसे ही माँ का अपना महत्व है। समूची पृथ्वी पर बस यही एक पावन रिश्ता है जिसमें कोई कपट नही होता l क्यूंकि मजबूत कधों का नाम है, माँ…माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है, माँ…

लव यू माँ
तुम्हारी बेटी…..
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक
इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़

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