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देश के इस सूरज “लाल” की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता

sach ka aaina
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देश के इस सूरज “लाल” की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता…..

भारत के इतिहास में डॉक्टर भीम राव आंबेडकर की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता. लेकिन आंबेडकर के जीवन काल में उन्हें वो स्थान नहीं मिला जिसके वो हकदार थे.
बाबा साहेब अंबेडकर के बारे में मेरा कुछ भी कहना और लिखना सूरज को दीपक दिखाने जैसा है, मानवता को शर्मसार कर देने वाली अत्यन्त कुटिल परिस्थितियों के बीच दलितों, पिछड़ों और पीड़ितों के मुक्तिदाता और मसीहा बनकर अवतरित होने वाले डा. भीमराव रामजी आंबेडकर जी, जो 14 अप्रैल 1981 को मध्य प्रदेश में इंदौर के निकट महू छावनी में एक महार जाति में पैदा हुए l बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर देश के उन चुनिंदा नेताओं में शामिल हैं, जिनके योगदान को बयान करने के लिए काग़ज़ के टुकड़े कम पड़ जाएं l
समाज जाति पांति, ऊँच नीच, छूत अछूत जैसी भयंकर कुरीतियों के चक्रव्यूह में बुरी तरह ग्रसित था,
जिसके चलते समाज में घृणा का जन्म हुआ। ऐसे विकट और बुरे दौर में अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के इस बालक ने प्रतिदिन अनेक असहनीय अपमानों और यातनाओं का सामना किया l भारत रत्न से अलंकृत बाबा साहेब का अथक योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता l वे हम सब के लिये प्रेरणास्रोत के रूप में युगों युगों तक उनके विचार उपस्थित रहेंगे l उनकी जीवनशैली और उनके काम करने का तरीका हमेशा हमें उत्साहित करता रहेगा l बाबा साहेब धनी नही थे और ना ही किसी उच्चकुलीन वर्ग में उनका जन्म हुआ था l अपने जन्म के साथ ही चुनौतियों को लेकर पैदा हुए थे अपनी हिम्मत और समाज के लिए कुछ करने की जिजीविषा ने उन्हें इस दुनिया में वो मुकाम दिया कि जिससे भारतवर्ष उनका आजन्म ऋणी हो गया l
बाबा साहेब ने 1956 में अपना धर्म परिवर्तन किया था धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को उन्होंने स्वीकार कर लिया था, जिसके चलते बाबा साहेब ने 1935 में ही सार्वजनिक तौर पर यह घोषणा की थी कि उनका जन्म भले ही हिंदू धर्म में हुआ है लेकिन उनकी मृत्यु एक हिंदू के रूप में नहीं होगी l
उनका मानना था कि हिंदू धर्म को छोड़ना धर्म परिवर्तन नहीं बल्कि गुलामी की जंजीरें तोड़ने जैसा
है इसलिए वो हिन्दू धर्म को छोड़कर बुद्ध की शरण में चले गए कहते हैं कि इस धरती पर जाति पांति, ऊँच नीच, छूत अछूत आदि विभिन्न सामजिक कुरीतियों के दौर में एक ऐसी असाधारण शख्सियत का अवतरण हुआ, जिसने समाज में एक नई क्रांतिकारी चेतना व सोच का सूत्रपात किया।
बाबा साहेब हर वर्ग के शोषित, कुचले, दबे लोगों की आवाज बनते थे। अगर आंकलन किया जाये तो सबसे बड़ी सच्चाई ये है कि समाज का संभ्रात वर्ग आदिवासी समाज को सहजता से स्वीकार करता है लेकिन दलित जातियों को स्वीकारने में भयानक कतराता है। दलितों में भी हरिजन उसके लिए सबसे ज्यादा अस्वीकार्य? क्यों? क्यूंकि देश का अधिकांश उच्च वर्ग बात बात में गालियां भी देता है तो उसी तरह की जो इन जातियों के बारे में होती है और इनकी सामाजिक और सांस्कृतिक अनुपयोगिता पर होती है। जैसे सभ्यता के सभी सूत्र उसके पास है और वह जो चाहता है वही होता है। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के विचार इसी घटिया समाजशास्त्र को चुनौती देते हैं। आज भी हमारे समाज में धार्मिक और जातिगत गैरबराबरी बदस्तूर जारी है और इसी गैरबराबरी को हटाने के लिए बाबा साहेब अपनी अंतिम साँस तक अनवरत लड़ते रहे, और उनका ये संदेश आज़ादी के दौरान जितना प्रासंगिक लगता था, आज उससे कहीं ज्यादा प्रासंगिक प्रतीत होता है l
बाबा साहेब को विश्वास था कि शिक्षित होकर ही स्त्री अपने अधिकारों को छीन सकती है। परिवार में स्त्री शिक्षा ही वास्तविक प्रगति की धुरी है जिस घर में पढ़ी लिखी स्त्री व मां हो उस घर के बच्चों का भविष्य अपने आप उज्जवल हो जाता है। बाबा साहेब स्त्री शिक्षा को अत्यधिक महत्व देते हुए कहते हैं कि अगर घर में पुरुष पढता है तो केवल वही पढता है और अगर स्त्री पढ़ती है तो पूरा परिवार पढता है l बाबा साहेब ने भारतीय साहित्य में प्राचीन से लेकर आधुनिक साहित्य के साथ साथ विदेशी साहित्य का भी अच्छी प्रकार से अध्ययन मनन किया था। साहित्य अध्यययन के दौरान शिक्षित व स्वतन्त्र स्त्रियों उदाहरण के रूप में उनके सामने बुद्ध की थेरियों से लेकर सावित्री बाई फूले व उनकी कई महिला मित्र थीं जिन्होने पढ़-लिख कर समाज परिवर्तन के लिए काम किया। इसलिए वह दलित स्त्रीयों को भी शिक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध थे। परिवार में औरत की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए बाबा साहेब ने शिक्षा के महत्व के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों जैसे बाल विवाह, बहु पत्निवाद, देवदासी प्रथा आदि के खिलाफ भी अपनी जनसभाओं में बात रखी। परिवार में लड़की लड़के का पालन पोषण समान रूप से होना चाहिए। बाबा साहेब शुरुआत से ही ज्ञान और सत्ता की राजनीति सहित धर्म और अध्यात्म के खेल को भी बहुत गहराई से समझ लेते थे, चूँकि उनका सामना किसी भारतीय शैली के द्रोण से या गुरुकुल परम्परा से नहीं होता बल्कि वे ब्रिटिश राज में लोकतांत्रिक ढंग से रची गयी इंग्लिश माध्यम की शिक्षा प्रणाली से गुजरते हैं इसलिए निष्पक्ष, वैज्ञानिक और तटस्थ प्रज्ञा की धार उनमे शुरू से ही आकार ले लेती रही, ब्रिटिश सेना में सूबेदार रहे उनके पिता उन्हें जैसे संस्कार और निडरता सिखाते हैं उनके प्रभाव में बालक अंबेडकर गुरुभक्ति और धर्मान्धता से आजाद हो चुके होते हैं इसीलिये वे न एकलव्य बनते हैं न विवेकानंद, वे संविधान निर्माता और भारत में सामाजिक बदलाव के सबसे बड़े प्रेरणा स्त्रोत बन जाते हैं.
बाबा साहेब अंबेडकर बम्बई कौंसिल से ‘साईमन कमीशन’ के सदस्य चुने गए। उन्होंने लंदन में हुई तीन गोलमेज कांफ्रेंसों में भारत के दलितों का शानदार प्रतिनिधित्व करते हुए दलित समाज को कई बड़ी उपलब्धियां दिलवाईं। दलितों के मसीहा बाब साहेब का कद भारतीय राजनीति में बहुत उंचाई पर जा पहुंचा l 1942 में उन्हें गर्वनर जनरल की काऊंसिल का सदस्य चुन लिया गया। उन्होंने शोषित समाज को शिक्षित करने के उद्देश्य से 20 जुलाई, 1946 को ‘पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी’ नाम की शिक्षण संस्था की स्थापना की। इसी सोसायटी के के तत्वाधान में सबसे पहले बम्बई में सिद्धार्थ कालेज शुरू किया गया और बाद में उसका विस्तार करते हुए कई कॉलेजों का समूह बनाया गया। ये कॉलेज समूह आज भी शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणीय भूमिका निभा रहे हैं।
बाबा साहेब के जीवन और कर्तृत्व की सार्थकता को कई कोणों से देखा जा सकता है लेकिन ज्ञान और सत्ता की ऐतिहासिक राजनीति के अर्थ में उन्हें इस तरह देखना एक प्रेरक अनुभव है बाबा साहेब अंबेडकर जिस तरह से अपने ज्ञान को गुरु और धर्म की सब तरह की भक्तियों से मुक्त करते चलते हैं वो बात बहुत ही सूचक और प्रेरक है उनके ज्ञान और इस ज्ञान को अर्जित करने में किये गए संघर्ष में लेशमात्र भी स्वार्थ न था, वे देश के उत्थान के लिए, अपने समुदाय अपने लोगों के लिए संघर्षरत थे और अंततः इसी ज्ञान से उन्होंने भारतीय सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक इतिहास की वो इबारत लिखी जो सबके लिए प्रेरणास्त्रोत बन चुकी है.
यहाँ यह बात गहराई से नोट करनी चाहिए कि वे धर्म और व्यक्ति दोनों की गुलामी से आजाद थे इसलिए इतना सार्थक निर्णय ले पाए और उस पर आजीवन अमल कर पाए और इसीलिए वे दलितों, आदिवासियों और शूद्रों (ओबीसी) के भविष्य निर्माण के लिए सबसे बड़ी सीख है जो इस तुलना में उभरती हैं उन्होंने समाजसेवक, शिक्षक, कानूनविद्, पदाधिकारी, पत्रकार, राजनेता, संविधान निर्माता, विचारक, दार्शनिक, वक्ता आदि अनेक रूपों में देश व समाज की अत्यन्त उत्कृष्ट व अनुकरणीय सेवा करते हुए अपनी अनूठी छाप छोड़ी। महामानव बाबा साहेब को देश व समाज में उनके आजीवन योगदान के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1990 में देश के सर्वोच्च सम्मान “भारत रत्न से अलंकृत किया उन्होंने अपने जीवन में दर्जनों महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी पुस्तकों और ग्रन्थों की रचनाएं कीं। इन पुस्तकों में ‘कास्ट्स इन इण्डिया’, ‘स्मॉल होल्डिंग्स इन इण्डिया एण्ड देयर रेमिडीज’, ‘दि प्राबल्म ऑफ दि रूपी’, ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’, ‘मिस्टर गांधी एण्ड दि एमेन्सीपेशन ऑफ दि अनटचेबिल्स’, ‘रानाडे, गांधी एण्ड जिन्ना’, ‘थॉट्स आन पाकिस्तान’, ‘वाह्ट कांग्रेस एण्ड गांधी है और इन टु दि अनटचेबिल्स’, ‘हू वेयर दि शूद्राज’, ‘स्टेट्स एण्ड माइनारिटीज’, ‘हिस्ट्री ऑफ इण्डियन करेन्सी एण्ड बैंकिंग’, ‘दि अनटचेबिल्स’, ‘महाराष्ट्र एज ए लिंग्विस्टिक स्टेट’, ‘थाट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स’ आदि शामिल थीं। कहते हैं कि कई महत्पूर्ण पुस्तकें उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाईं। इन पुस्तकों में ‘लेबर एण्ड पार्लियामेन्ट्री डेमोक्रेसी’, ‘कम्युनल डेडलॉक एण्ड ए वे टु साल्व इट’, ‘बुद्ध एण्ड दि फ्ूचर ऑफ पार्लियामेंट डेमोक्रेसी’, ‘एसेशिंयल कन्डीशंस प्रीसीडेंट फॉर दि सक्सेसफुल वर्किंग ऑफ डेमोक्रेसी’, ‘लिंग्विस्टिक स्टेट्स: नीड्स फॉर चेक्स एण्ड बैलेन्सज’, ‘माई पर्सनल फिलॉसफी’, ‘बुद्धिज्म एण्ड कम्युनिज्म’, ‘दि बुद्ध एण्ड हिज धम्म’ आदि शामिल हैं।
समाज के प्रत्येक वर्ग को बाबा साहेब अंबेडकर के इन विचारो का सम्मान करना चाहिए
1. मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाता है.
2. जीवन लम्बा होने के बजाय महान होना चाहिए .
3. एक महान व्यक्ति एक प्रतिष्ठित व्यक्ति से अलग है क्योंकि वह समाज का सेवक बनने के लिए तैयार रहता है.
4. दिमाग का विकास मानव अस्तित्व का परम लक्ष्य होना चाहिए.
5. हम सबसे पहले और अंत में भारतीय हैं.
6. हिंदू धर्म में विवेक, कारण और स्वतंत्र सोच के विकास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है
7. मनुष्य नश्वर है. ऐसे विचार होते हैं. एक विचार को प्रचार-प्रसार की ज़रूरत है जैसे एक पौधे में पानी की ज़रूरत होती है. अन्यथा दोनों मुरझा जायेंगे और मर जायेंगे.
8. मैं एक समुदाय की प्रगति का माप महिलाओं द्वारा हासिल प्रगति की डिग्री द्वारा करता हूँ.
9. इतिहास बताता है कि जहाँ नैतिकता और अर्थशास्त्र में संघर्ष होता है वहां जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है. निहित स्वार्थों को स्वेच्छा से कभी नहीं छोड़ा गया है जब तक कि पर्याप्त बल लगा कर मजबूर न किया गया हो.
10. हर व्यक्ति जो “MILL” का सिद्धांत जानता है, कि एक देश दूसरे देश पर राज करने में फिट नहीं है, उसे ये भी स्वीकार करना चाहिये कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर राज करने में फिट नहीं है.
11. लोग और उनके धर्म सामाजिक नैतिकता के आधार पर सामाजिक मानकों द्वारा परखे जाने चाहिए. अगर धर्म को लोगों के भले के लिये आवश्यक वस्तु मान लिया जायेगा तो और किसी मानक का मतलब नहीं होगा.
12. एक सफल क्रांति के लिए सिर्फ़ असंतोष का होना काफ़ी नहीं है. आवश्यकता है राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों के महत्व, ज़रुरत व न्याय का पूर्णतया गहराई से दोषरहित होना .
13. यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्मों के धर्मग्रंथों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए.
14. यदि मुझे लगा कि संविधान का दुरुपयोग किया जा रहा है, तो मैं इसे सबसे पहले जलाऊं
15. जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं हासिल कर लेते,कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है वो आपके लिये बेमानी है.
16. समानता एक कल्पना हो सकती है, लेकिन फिर भी इसे एक गवर्निंग सिद्धांत रूप में स्वीकार करना होगा
17. राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं हैं और एक सुधारक जो समाज को खारिज कर देता है वो सरकार को खारिज कर देने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी है.
18. अपने भाग्य के बजाय अपनी मजबूती पर विश्वास करो.
डॉक्टर भीम राव आंबेडकर की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता……
डॉक्टर भीम राव आंबेडकर उस दौर के सबसे पढ़े लिखे और जानकार नेताओं में से थे. वो अपने विचारों के पक्के थे. इसीलिए कई मुद्दों पर गांधी और नेहरू से आंबेडकर के मतभेद भी रहे. यहां तक कि आखिरी कुछ सालों में उन्होने कांग्रेस से किनारा कर लिया. यही वजह थी कि तब की राजनीति में आंबेडकर की विरासत का दावेदार कोई नहीं था. लेकिन वोट बैंक के इर्द गिर्द घूमने वाले चुनावी राजनीति ने धीरे धीरे आंबेडकर को एक प्रतीक बना दिया. पहले बीएसपी और अब कांग्रेस और बीजेपी, आंबेडकर के नाम का इस्तेमाल दलितों के वोट हासिल करने के लिए कर रहे हैं क्या यह दलितों के साथ धोखा नहीं है?
भारत के इतिहास में डॉक्टर भीम राव आंबेडकर की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता. लेकिन आंबेडकर के जीवन काल में उन्हें वो स्थान नहीं मिला जिसके वो हकदार थे.
लेकिन इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता कि आंबेडकर के नाम को सभी राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं. क्या यह इतिहास में आंबेडकर की भूमिका से अन्याय करने जैसा नहीं है l बाबा साहब कहते थे कि मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा सिखाये अगर धर्म को लोगो के भले के लिए आवशयक मान लिया जायेगा तो और किसी मानक का मतलब नहीं होगा उन्होंने जो कहा, उसका निर्वाह जीवन भर किया l युगदृष्टा व दलितों और पिछड़ों के इस मसीहा ने देश में नासूर बन चुकी छूत-अछूत, जाति-पाति, ऊँच-नीच आदि कुरीतियों के उन्मुलन के लिए अंतिम सांस तक अनूठा और अनुकरणीय संघर्ष किया।
बाबा साहेब आज भले ही हमारे बीच में उपस्थित नहीं हैं लेकिन एक आदर्श समाज की रचना करने का जो पथ वे आलौकित कर गये हैं, वे भारत को नित विकास के पथ पर आगे बढ़ाते रहेंगे l लेकिन उन्होंने एक सफल जीवन जीने का जो मंत्र दिया, एक रास्ता बनाया, उस पर चलकर हम एक नये भारत के लिये रास्ता बना सकते हैं l यह रास्ता ऐसा होगा जहां न तो कोई जाति पांति का मतभेद होगा और ना ही अमीरी गरीबी की खाई होगी l समतामूलक समाज का जो स्वप्न बाबा साहेब ने देखा था और उस स्वप्न को पूरा करने के लिये उन्होंने जिस भारतीय संविधान की रचना की थी, वह रास्ता हमें अपनी मंजिल की तरफ ले जायेगा, एक बात हमेशा याद रखो अन्याय का विरोध सम्मान और अधिकार की प्राप्ति ही जीवन है | वैसे भी एक बात तो माननी ही होगी कि इन्सानी भाईचारे के बिना देश तरक्की नहीं कर सकता। जो लोग अपनी निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिये धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता व जातिवादी जहर घोलते हैं, वह देश व समाज के हितैषी नहीं हो सकते। ये सत्य है कि देश का सबसे बड़ा शत्रु अराजकता, अपराध, भ्रष्टाचार व साम्प्रदायिकता है। इस घातक बुराई और बीमारी से समाज को सचेत रहना चाहिये। जिस दिन सबको एक सामान अधिकार मिल जायेगा उस दिन असमानता और गरीबी का अपने आप अंत हो जायेगा l …….
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक
इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़

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