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तिलक और कलंक दोनों ही माथे पर लगते है

sach ka aaina
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sunita profile copyijhnk

तिलक और कलंक दोनों ही माथे पर लगते है….

बस यूँ ही जिन्दगी चल रही है, बहुत दिन हुए सफेद कागज की इन लाइनों पर हजारों अनकही बातों को संवारने का मन ही नही किया, कारण कि मेरे खयालों की पोटली तुम्हारे इर्द गिर्द सिमट गई है, कभी कभी मेरा मन बरबस ही रो उठता है और सोचता है कि….
ऐ “मोहब्बत” तूने अपने “इश्क” में बहुत रुलाया है मुझे
जरा पूछ जाकर मेरे पापा से कितनी लाड़ली हुआ करती थी मैं…..

एक बात और कहूंगी कि बरखुरदार इसे मेरी कमजोरी मत समझना क्यूंकि मैं असहाय नहीं, बस बहुत व्यथित हूँ……
समय की गति के साथ साथ हम अपनी जिन्दगी में कुछ ना कुछ तजुर्बा हासिल करते रहते है तजुर्बा पाने का कोई शार्ट कट साधन नही है इसी तजुर्बे को सीखते सीखते न जाने कब उम्र के इन पड़ावों को पार कर गई l जिन्दगी की रफ़्तार कभी तेज़ कभी धीमी गति से निरंतर चलायमान है l कहते हैं कि मोहब्बत खुदा है और खुदा के नूर में एक दिव्य ज्योति विराजमान होती है जिसे पाने के लिए प्रेम और इंसानियत के मार्ग पर चलना पड़ता है l मैंने अक्सर लोगों से सुना है कि मनुष्य के स्वयं के पाप कर्म ही प्रेम और इंसानियत के मार्ग में मूल बाधा उत्पन्न करते है। पाप कर्म को त्यागे बिना आप दिव्य ज्योति रूपी ईश्वर से जो कि प्रेम में बसता है आप उसी प्रेम से साक्षात्कार नहीं कर सकते।
ये सत्य है कि “सौंदर्य आपके ध्यान को आकर्षित करता है, लेकिन व्यक्तित्व आपके दिल को आकर्षित करता है। मैंने भी एक व्यक्तित्व को देखा महसूस किया और आत्मसात कर लिया, लेकिन ये निरी कोरी कल्पना थी जिसे मेरा भ्रामक मन समझ न पाया और एक दंभी पुरुष के मन की थाह पाए बिना ही बेपनाह प्रेम कर बैठा l कहते हैं कि सच्ची मोहब्बत जेल की तरह होती है, जिसमे उम्र बीत जाती है पर सजा पूरी नही होती..!!
अक्सर मेंरी ख़ामोशी मुझसे ही कुछ अनकहे प्रश्न करती है इधर उधर घूमती हुई पुतलियाँ ढूँढती हैं एक ऐसा “शब्दकोश” जिसमें ताउम्र सुलगते प्रेम की ज्वाला के अर्थ अपनी एक अलग ही परिभाषा बयाँ करते हो, ताकि कह सकें कि कैसा लगता है जब तपते माथे पर कोई ठंडी हथेली नहीं रखता, कैसा लगता है जब अश्कों से बहते हुए आंसू उसे पानी नजर आते हैं, कैसा लगता है जब पास से गुजरते वक्त कोई अपने नजरों को दूसरी तरफ फेर कर नजरंदाज़ कर देता है, कैसा लगता है जब व्यथित मन की पुकार सुनकर कोई अनसुनी कर देता है l मेरे सवालों पर हमेशा ही एक प्रश्न चिन्ह लगा रहा और मैं एक ही बात मानती रही कि….

“हक़ से देगा तू, तो सर आँखों पे तेरी “नफरत” सजा लूंगी
मुझे खैरात में दी हुई तो, तेरी “मोहब्बत” भी मंजूर नहीं”

वैसे इन दिनों स्वयं को खोजने के चक्कर में कुछ रचनाएँ भी लिख डाली जिन्हें आपके सामने रूबरू करती हूँ, बस यही सोच के साथ कि…….

“वक्त से लड़कर जो अपना नसीब बदल दे, है इंसान वही जो अपनी तकदीर बदल दे”

१- गजल लिखने की ख्वाहिश

इक शाम यूँ ही तन्हा थी
हवाएं तन्हा थी सांसे तन्हा थी
मेरी सिसकियाँ लिखना चाहती थी इक गजल
मैं कैसे लिखूं ? मुझसे इक गजल लिखती नही……
कुछ उम्र की दहलीज पार कर रहे
चोट खाए लोगो ने फरमाया
“ऐ बावली ! गजल लिखना कोई खेल नही
पहले मोहब्बत कर ले, जब दिल टूटे और आह निकले
तो लिख लेना गजल, शब्दों में भर देना दर्द
क्यूंकि टूटे दिल की आह से बिखरते है शब्द
जब संवरती है आह, तो निखरती है गजल”
मैं क्या करती बेवडा मन न माना, कलम उठे रह जाये
रूह तक पहुचने से पहले शब्द बने और बिखर जाए
मैं कैसे लिखूं ? मुझसे इक गजल लिखती नही……
फिर क्या था ढूढ़ने लगी “प्रेम का देवता”
जो हो उसूलों का पक्का, प्रेम को परखने वाला
नियम कायदे कानून को समझने वाला
स्त्री को सम्मान और ईश्वर के आगे सर झुकाने वाला
और हो तन पर ब्लैक कलर का वेळ टेलर्ड सूट
ताकि उसके व्यक्तित्व से उभरती आड़ी-तिरछी रेखाओं से
मैं उसे प्रेम के देवता का रूप दे सकूँ, जिसकी मैं इबादत कर सकूँ l
फिर तुम अचानक मिले, इस युग की रफ्तार में जैसा होता आया है
मैंने भी वही किया तुम्हे देखा, जांचा, परखा
प्रेम हुआ, लेकिन आह न निकली
गजल लिखने की इक्षा रही अधूरी, ये कैसी थी मजबूरी
मैं कैसे लिखूं ? मुझसे इक गजल लिखती नही……
इस गजल के भंवर में ख्वाहिश ऐसी फंसी कि,
लाज शरम रख दी ताक पर, कर बैठी तुमसे प्रेम
लो जी हो गई भाई और पिता को खबर
पिता ने सजा दी डोली और भाई ने दे दिया कान्धा
सज संवर के चल दी पिता की दुलारी
और कमबख्त उतर गई गजल लिखने की खुमारी
थी पिया के घर में, रुकते नहीं थे आंसू
गजल लिखने का चढ़ा था गजब का नशा
बड़े बुजुर्गों ने फ़रमाया, बहू तू घर ले सम्भाल
गजल की ख्वाहिश अब दे निकाल
अगर तू गजलकार है तो लिख………
“है मोहब्बत इक धोखा, इसने लाखों को लूटा है
एक बेबस दीवानी इसमे और एक लाचार दीवाना है..
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२- एक और कोशिश …

मैं समझती रही और बिखरती रही
जो जमाने को अच्छा लगा, वो वही कहता रहा
दिल में मेरे एक शोला धधकता रहा
उसने जितना चाहा, बस हमने उतना कहा
नेकी से मिला, बदी में ढला, क्यूँ श्राप बना
प्रेम से तू बना, फिर भी ये कहता रहा
ना कर प्रेम, आदमी के लिए प्रेम ही पाप है
मैं समझती रही और बिखरती रही
खुद मैं लिखना चाहा बहुत, पर लिख न सकी
तुझको कहना चाहा बहुत, पर कह न सकी
दर्द के समुद्री शैवाल छुपे थे छुपे ही रहे
कहाँ, कब-कब, और कैसे-कैसे छली मैं गई
घडी भर को सही, अब चलो मान लो
ना दोष मेरा रहा, ना दोष उसका रहा
सुनो छोडो ज़माने को अब यहीं छोड़ दें
चल सारे रस्मों के बंधन यहीं तोड़ दें
अब छोडो कलम को एक नया मोड़ दें
मैं तुम्हारी कसम लूँ, तुम मेरी कसम लो
संग संग निभाए पलों को यहीं रोप दें
है जल कर बुझी, फिर बुझ कर जली
है ये किस्मत हमारी, बड़ी नाजों से पली
चल मैं अपनी पढूं, तू अपनी पढ़े
आ तकदीर संवारूं और उसे बाँध लूँ
अब इन रिश्तों के बंधन यहीं जोड़ दें
तू अपनी कहे और में अपनी कहूँ
तू मेरी सुने और मैं तेरी सुनु
चल सांसों की डोरी यहीं जोड़ लें……..
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३- जब नाम तेरा

उनकी निगाह-ए-करम का है ये कैसा भ्रम
सबब कैसा मिला, है जला फिर मेरा आशियाँ
जब नाम तेरे संग प्यार से, लेतीं थी सहेलियां
तब मेरी तरफ ज़माने की, उठती थीं उँगलियाँ
लज़्ज़ते इश्क़ का शौक, रखतीं हैं नामचीनियां
बूझता है जमाना, मोहब्बत की अनबूझ पहेलियाँ
मैं माफ़ करती रही हर खता पे, उसकी ग़ुस्ताख़ियाँ
तो क्या हुआ जो चिरागे गुल पे, चलीं हैं आरियाँ
फक्त आतिशे इश्क़ ज़ारी रहा, तेरे मेरे दरमियाँ
फिर क्यूँ ना सुनी जमाने ने, उजालों की सिसकियां………….

सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक
इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़

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