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आवाम फिर भी खामोश है क्यूँ ?

sach ka aaina
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sunita dohare

आवाम फिर भी खामोश है क्यूँ ?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी के प्रचार अभियान का आगाज कल शुरू कर दिया।
गौरतलब हो कि एनडीए और महागठबंधन के बीच तीसरी ताकत बनने को बेताब समाजवादी पार्टी ने बिहार विधान सभा चुनाव में अपनी दस्तक दे दी है. समाजवादी पार्टी और पांच दलों के संयुक्त सम्मेलन में एनसीपी के तारिक अनवर की अध्यक्षता में चुनाव लड़ने की घोषणा भी कर दी गयी है l समाजवादी पार्टी ने बिहार चुनाव में पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, लोक निर्माण मंत्री शिवपाल यादव, कन्नौज से सांसद डिंपल यादव और पार्टी के अल्पसंख्यक चेहरा आजम खां को स्टार प्रचारक के तौर पर प्रचार के लिए आमंत्रित किया था।
देखने की बात ये है कि मंच पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव महागठबंधन के दोनों नेताओं लालू प्रसाद और सीएम नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ खुलकर बोलने से बचते नज़र आये l डीएनए प्रकरण की चर्चा तो उन्होंने की लेकिन, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम नहीं लिया l वहीँ एनडीए पर भी उनका हमला भी सतही था. भारतीय जनता पार्टी के अच्छे दिन के नारे पर चुटकी लेते हुए उन्होंने कहा कि वह पार्टी का नहीं बल्कि एक ब्रांडिग और मार्केटिंग कंपनी का नारा था. लेकिन, आज वह कंपनी बदल गयी है और दूसरे को चुनाव लड़ा रही है. जहाँ तक गौर करने वाली बात ये है कि तीसरे मोर्चा का फ़ोकस मुस्लिम और यादव वोट होगा. क्यूंकि इसी वोट बैंक पर महागठबंधन भी निर्भर रहा है. परिणामस्वरूप इसका फायदा एनडीए को मिल सकता है.
विदित हो कि नेता जी के नेतृत्व में बिहार में एक महागठबंधन भी बना था जिसके मुखिया श्री मुलायम सिंह यादव जी थे। लोकसभा के चुनाव से समाजवादी पार्टी ने एक सबक सीखा है कि  बीजेपी और मोदी की कोई लहर नहीं थी लेकिन कांग्रेस के विरोध में पूरा देश खड़ा हो गया था। जो भी कांग्रेस से लड़ा प्रचंड बहुमत से जीता। नवीन पटनायक ममता बैनर्जी और जय ललिता ने साबित कर दिया कि कांग्रेस विरोध में उनको मोदी से ज्यादा पर्सेंट में सीट मिली। बीजेपी को 400 में 282 यानि 70% और दूसरी तरफ बाकियों को 100 में 92 यानि कुल 92% जीत का आंकड़ा बनता हैं।
इसी को देखते हुए सपा सुप्रीमो ने सबसे अलग चुनाव लड़ने का ऐतिहासिक फैसला किया l साथ ही ये संकेत भी किया कि बिहार चुनाव में उत्तर प्रदेश की तरह इतिहास दोहराएंगे।
मंच पर कई दिग्गज समाजवादी नेता श्री राजेन्द्र चौधरी, श्री अरविन्द कुमार सिंह गोप नारद राय, श्री मोहम्मद अब्बास, श्री अरशद खान समेत मौजूद रहे l सम्मेलन में तीसरे मोर्चे के घटक दलों के मुख्य नेताओं में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के तारिक अनवर, जन- अधिकार मोर्चा के पप्पू यादव, समरस समाज पार्टी के नागमणि, समाजवादी जनता दल के देवेन्द्र प्रसाद यादव और नेशनल पीपुल्स पार्टी के नेता भी थे. तो ये तो रहा सियासी खेल जो मंच पर कल खेला गया लेकिन मेरा आंकलन तो ये कहता है कि इसे देश की बदकिस्मती ही कहेंगे कि राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ आतीं जातीं रही लेकिन देश वही पर खड़ा आज भी वाट जोह रहा है l
जब बिहार की राजनीति में नीतीश, रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, पप्पू यादव आदि ओबीसी और दलित नेताओं का उदय हुआ था तब किसी ने ये नही सोचा था कि बिहार धर्म की बिसात पर दो टूक आंसूं बहाता रहेगा l भाजपा हो या कांग्रेस अब बिना कार्य किये देश में राजनीति नहीं चल सकती। ये दोनों राष्ट्रीय दलों को पता चल चुका है।
गौर करने की बात ये भी है कि अभी सपा सुप्रीमो सीबीआई के नये पेच में फंसे हैं. ये कोई कहने की बात नही कि केन्द्र में सत्तासीन पार्टियाँ इस पेंच को अमोघ अस्त्र के रूप में अपनाती रही हैं. और अब सपा सुप्रीमो पर यादव सिंह और आईपीएस अमिताभ ठाकुर के ज़रिये जाल बिछा दिया गया है. इसी के चलते सुप्रीमो महागठबन्धन से भाग खड़े हुए, हालाँकि अब सपा सुप्रीमो मज़बूरन सब कुछ करने को तैयार हैं और इससे सिर्फ फ़ायदा एनडीए को होगा. देखा जाए तो ऐसा ही चरित्र एनसीपी का है. तारिक़ अनवर ने तब तक यूपीए में रहकरखूब शहद चाटा और पप्पू यादव तब तक लालू का हाथ थामे रहे, जब तक घी में उनकी उंगलिया रहीं l  ये सत्य है कि डॉ. लोहिया और कर्पूरी जी ने सामाजिक न्याय की राजनीति को देश में आगे बढ़ाने का जो बीड़ा उठाया था, वह परिवारवाद की भेंट चढ़ गया. किसी ने ठीक ही कहा है कि
“राजनीति में सिर्फ तिकड़मी ऊपर उठते हैं और काम करने वाली काबिल शख्सियतें पीछे छूट जाती हैं।
काश आवाम ये समझ सकती कि सेकुलर वोटों को छितराने के काम में मुलायम सिंह की पार्टी एसपी, शरद पवार की पार्टी एनसीपी और पप्पू यादव की पार्टी जन अधिकार पार्टी के साथ ओवैसी भी लगे हैं। फ़िलहाल जो भी हो बिहार के चुनावी मैदान के हर कोने में पार्टियों द्वारा सियासत खेली जा रही है इसीलिए लगता है कि बिहार के चुनावी संग्राम में इस बार पार्टियों का प्रदर्शन देखने जैसा  होगा. जो बिना शतरंज के खेला जाएगा जिसमें बड़े-बड़े धुरंधर जमींदोज़ हो जायेंगे.
कुल मिलाकर देखा जाये तो बिहार का चुनाव बहुत ही दिलचस्प नजारा बयाँ कर रहा है जिससे विकास की लुटिया, हिंदू-मुसलमान, बैकवर्ड-फॉरवर्ड, दलित आदि जाति और संप्रदाय के सागर में गोते खा रही है। ज्ञात हो कि धार्मिक जनगणना का आँकड़ा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए एक आज़माया हुआ ज्वलनशील पदार्थ है. जिसको सिर्फ एक चिंगारी की जरूरत है जिसे ये धूमिल छवि की बिगडैल पार्टिया बखूबी सुलगाना जानती हैं l ये सब देखकर लगता है कि पूरे चुनाव पर हिन्दू बनाम मुस्लिम हो जाने का खतरा मंडरा रहा है l वैसे आज की राजनीती स्वार्थ और अपना वजूद बचाने के लिए बनी है l
ऐसे में आवाम को चाहिए कि चुनाव में अच्छे और साफ़ सुथरे छवि वाले उम्मीदवारों को मौक़ा दे. फिर सुकून से अपने प्रदेश के विकास का आंकलन करे l
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक

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