हमेशा से लोगों की आम धारणा यही रही है कि हर स्त्री “रूह” से चाहत की तलाश करती हैं सच्चा प्यार पाने की तलाश में कभी कभी अपने पथ से भटक भी जाती है जबकि उसे ये बखूबी पता होता है कि स्त्री के ‘रूह’ की तलाश का नतीजा उसके अस्तित्व का अंत करता है क्योंकि इसका अंत ‘जिस्म’ की स्याही से लिखा जाता है…. लेकिन मेरी नजर में प्रेम वही सच्चा है, जिसकी ख़ुशी में तुम्हारी ख़ुशी शामिल हो, ये महत्व नहीं रखता कि आपने प्रेम किससे किया है बल्कि ये महत्व रखता है कि आप अपने प्रेम के प्रति कितने ईमानदार हैं आप जिसे भी प्रेम करते हो, उसके प्रति ईमानदारी रखिये व्यथा अपने आप दूर हो जाएगी l वो कहते हैं कि…. कि तुम्हारी रूह से जो निकले वफा की महक और उस महक की ठंडी मदहोशी, उसके विरह की अगन को भी शीतल कर दे, चन्दन का लेप ना मिले ना सही, चाँद की शीतलता में भी बहुत तृप्ति होती है जो रूह को वशीभूत कर देती है l……..
कविता
आज अपने ऑफिस के केबिन में नारी मन के रिश्तों की हलचल से गुजरती हुई मेरी कलम गढ़ रही थी शब्द, इस सभ्य समाज में उसके हालातों पर विचलित हो मैं बना रही थी नोट्स व्यथित शब्द, अब व्यथित हो असहाय हो चले थे… ठीक उसी वक़्त कंप्यूटर के की बोर्ड पर मचलतीं मेरी अंगुलियाँ ना जाने क्यूँ उद्देश्य से हट चली थी, ये अहसास देने लगी, और सीधे जा लगीं तुम्हारे काँधे से…. तुममें खुद को तलाशती मेरी आँखें झर झर हो गई रूह से चाहत की ख्वाहिश लिए, कहीं बिखर रही थी.. उफ़ ! ये कैसा एहसास, ये कैसी कसक !! लेकिन ठीक उसी समय एनाउसमेंट हुआ ब्रेकिंग न्यूज़ की लाईट बिलिन्क हो रही है मैडम इसे फाइनल कीजिये l इमिडियेट आइये मेरे केबिन में और परसों की मीटिंग के एजेंडों को तैयार कीजिये जी करती हूँ…. फिर क्या, फिर से सिस्टम पर बिछ गई मैं l लेकिन ! फिर से वही उफ्फ ! ये स्क्रीन पर क्या उभर रहा है, ये तो तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी मुस्कराहट, तुम्हारा जोर से हँसना जैसे तुमने बरबस अपनी और खींच लिया हो… मैं कहती रही अभी काम है जाओ अभी और तुम कहते नही, मुझे महसूस करो इसी मैं और तुम के खेल में तुम कभी स्क्रीन से विलुप्त हो जाते कभी बरबस घुसपैठ करते नजर आते, ना जाने कब लंच हो गया सब अपने अपने में बिजी थे, मेरा मन नही था कुछ भी खाने को लेकिन मुझे ऑफिस छोड़ते समय तुम्हारी वो शख्त हिदायत, सुनी ! कुछ खा लेना काम ही मत करती रहना, उफ्फ ! हर जगह तुम्हारी घुसपैठ… हर उस जगह भी घुसपैठ करते रहते हो, जहाँ नही होनी चाहिए पता ही नहीं लगता कब तुम मेरे कंप्यूटर स्क्रीन पर मुस्कराने लगते हो ये ऑफिस का काम, और तुम्हारी दादागीरी…. क्या कर रही हो सुनी ? अरे ! जानते हो ना तुम, कि अत्यधिक सतर्कता बरतते हुए काम ना किया तो…… तुम ये भी जानते हो न, नहीं याद करती तुम्हें याद तो उन्हे करते हैं, जो साथ नहीं होते तुम तो हरदम मेरे अहसासों में साथ साथ हो और मेरी रूह को तृप्त करने का भरसक प्रयास करते हो नहीं जानती मैं कि क्या चाहिए मुझे और क्यूँ चाहिए….. क्या तुम्हे पता है कि जिस्म सौ बार जले और सुलगे लेकिन रहता वही मिट्टी का ढेला है… रूह एक बार जलेगी तो वह कुंदन होगी, सुनो ! एक नदी बहती है मुझमें भी जब तुम हौले से छू लेते हो तो ये रूह तरंगित हो उठती है अब तो मैं अपनी बीती हुई उम्र को भी तुम्हारे प्रेम के स्पर्श में ढूँढती हूँ तुम्हारे स्पर्श ने मेरी सोई हुई तमाम उम्र को जगा दिया है जिससे मैं आईनों में खुद को ढूँढने लगी हूँ सुनो ! यूँ बार बार ना आया करो तुम मेरे स्क्रीन पर क्यूंकि मुझे सताता है प्रेम की प्याली के छलक कर खाली हो जाने का डर बस यही ख्वाहिश है कि मेरी रूह तुम्हारी रूह के साथ मिलकर इन फिजाओं में, गहराते काले बादलों में ओस के मोती संजोना चाहती है और वो इसलिए भी की इन मोतियों को, इस प्रेम को समूची कायनात में बिखेर देना चाहती हूँ और ये दुनियां को बता देना चाहती हूँ कि रूह से रूह का मिलन हो तो प्रेम सम्पूर्ण होता है……. सुनीता दोहरे……….
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