उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीड़न की घटनाएं चर्चा का विषय हैं दलित समाज की दूसरी बड़ी कमजोरी है, स्तरहीन और दोयम दरजे की शिक्षा से पैदा हुई बेरोजगारी । यह दलित दासता का बेहद शर्मनाक रूप है। पिछले महीने शाहजहांपुर के पास ट्रेन की छत से गिरकर दर्जनों बेरोजगार युवकों की मौत क्या संदेश छोड़कर गई है? दलितों में शिक्षा के स्तर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में जितने भी अशिक्षित लोग हैं, उनमें 95 प्रतिशत दलित हैं। दलितों में, जिनकी संख्या देश में तकरीबन 25 करोड़ है और जो हमारी कुल आबादी का 24.4 प्रतिशत हैं, पुरुषों की साक्षरता दर 31.48 प्रतिशत और महिलाओं की 10.93 फीसदी है। साफ है कि संविधान में उनके शैक्षणिक उत्थान के लिए जो प्रावधान किए गए हैं, उसका पूरा लाभ उन्हें नहीं मिल रहा। इसकी कई वजह है, जिनमें से एक प्रमुख वजह उनके भीतर घर कर गई सामाजिक असुरक्षा की भावना है। ऊंची जातियों के शोषण से डरा-सहमा समाज का यह तबका आज भी अपने बच्चों को स्कूल भेजते समय एक अनजाने डर से ग्रस्त रहता है। आंकड़ों के मुताबिक करीब 37.8 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में दलित और ऊंची जाति के बच्चे भोजन के समय अलग-अलग बैठते हैं। ये सब आजाद भारत का ऐसा सच है, जिसे शहरों में बैठकर नहीं देखा जा सकता, जहां जाति बंधन धीरे-धीरे दम तोडऩे लगा है। देश के आर्थिक विकास में इस वर्ग का अहम योगदान है। खासकर कृषि क्षेत्र में, जहां ज्यादातर मजदूर दलित ही होते हैं। लेकिन विकास की दौड़ में वे स्वयं काफी पीछे रह गए हैं। भू-स्वामियों द्वारा उनका शोषण किसी से छिपा नहीं है। दिन भर खेतों में काम करने के बाजवूद या तो उन्हें नाममात्र का वेतन दिया जाता है या फिर जान से मार दिया जाता है !
विगत दिनों एक घटना हुई जो जाति व्यवस्था का क्रूर परिणाम है जो मन्नू तांती के साथ घटित हुई है. अपने देश में दलितों की दशा एवं दिशा का यह जीता जागता प्रमाण आपके सामने है. यह घटना बिहार राज्य के जिला लक्खीसराय गांव खररा की है। स्व. मन्नू तांती के साथ यह घटी है. केवल अपने पिछले चार दिनों की मजदूरी मांगने के कारण मन्नू तांती को गेहूं निकालने वाली थ्रेसर में जिन्दा पीस दिया गया. इस जघन्य हत्या को अंजाम उसके गांव के दबंग लोगों ने दिया. Where are the fundamental rights and constitution of India ? Where are the Gandhian , Ambedkarite , Socialist , Communists of all directions , Akali , Dravidian , Bahujan and Sarvjan political parties to punish those who did cut an alive labourer into pieces when he asked his four days due wages ? We must slap on the faces of such sociopolitical and religious leaders who talk about the God and Constitution but they keep mum on such murders and other heinous crimes ! Shame on the Indian President , Vice President , P.M. , Indian cabinet and the Bihar state govt. ! यह एक कड़वी सच्चाई है कि दलित अत्याचार संबंधी कानून को कभी ठीक से लागू ही नहीं किया गया. दलित अत्याचार के मामले जल्दी निपटाने के लिए न तो विशेष अदालतें बनाई गई है और न ही पुलिस अधिकारियों को दलितों-आदिवासियों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाने के लिए इस कानून के अहम प्रावधानों के बारे में ठीक से अवगत कराने का प्रयास हुआ है. थानों में न प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होती है और न ऐसे मामलों के लिए विशेष अदालतों का गठन होता है और न ही ऐसे अत्याचारों की देख-रेख करने के लिए निगरानी कमेटियों का गठन हुआ है. दलितों पर अत्याचार को लेकर जब-जब हुक्मरानों की निद्रा टूटती है तब रूटीन के तौर पर यही कहा जाता है कि हम अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को सख्त बनाएंगे. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि किस तरह पुलिस, प्रशासन और सभ्य कहे जाने वाले समाज के बीच की सांठगांठ के चलते ऐसी स्थिति बनी है कि कानूनी हस्तक्षेप बेमानी बनता जा रहा है.सामाजिक गतिविज्ञान से परिचित कोई भी व्यक्ति अच्छी तरह बता सकता है कि दलितों के निरन्तर अपमान एवं भेदभाव को शेष समाज की व्यापक सहमति प्राप्त है. बार-बार यही देखा जाता है कि पुलिस, प्रशासनिक अमला ऊंची-दबंग जातियों के हितों की हिफाजत करने में लगे रहते है. जातियों में बंटे भारतीय समाज में सवर्ण बनाम दलित के प्रकरण उतने ही आम हैं जितने मध्यकाल में हुआ करते थे। दलितों के प्रति सवर्ण तबके का व्यवहार अब भी भेदभाव से भरा हुआ है। इसकी झलक स्कूलों में मिलने वाले मध्याह्नï भोजन से लेकर शादी-ब्याह के तौर-तरीकों और घर की रसोई से लेकर मंदिरों में प्रवेश करने तक कदम-कदम पर मिल जाएगी। विदित हो कि पिछले दिनों एक वाकया हुआ जिसने मुझे पूरी तरह झकझोर दिया जिसे मैं चाह कर भी नही भूल पा रही हूँ कि शिर्डी में बीयर शाप में बाबा साहेब की रिंगटोन बजने से गुस्साएं दबंगों ने दलित युवक सागर शेजवल को पीट-पीट कर मार डाला। देखा जाए तो आजादी के बाद वोट बैंक की राजनीति ने जातीय सौहार्द बिगाड़ने में सबसे ज्यादा बड़ी भूमिका निभाई है l चुनावों में हर व्यक्ति अपनी अपनी जातीय भावनाओं के अनुरूप एक दुसरे के खिलाफ वोट करता है, अक्सर चुनावों में जातीय झगड़े भी होते है, क्यूंकि गांवों में जब भी चुनाव होते है जाट, राजपूत, दलित आमने सामने होते है. यह एक कटु सच्चाई है जिसे प्रशासन को समझने की जरुरत है l दलितों पर होने वाले अत्याचार सामाजिक रूढिय़ों की देन हैं, लेकिन इन पर अंकुश किसी एक के भरोसे नहीं लग सकता। संविधान में समानता की जो व्यवस्था है, उसे लागू करवाना सरकार और प्रशासन की जिम्मेदारी है और इस जिम्मेदारी में समाज को भी बराबर का भागीदार बनना पड़ेगा। दलित संगठनों को दलितों की समस्याओं, उनके साथ हो रहे अन्याय और शोषण की चर्चा करते वक्त संविधान और शासन द्वारा दी गई मदद और मिले अधिकारों की भी बात को स्वीकार करना चाहिए। इससे ही दलितों के प्रति जहां एक स्वस्थ नजरिया बनेगा वहीं पर समस्याओं को उठाने पर उसे शासन और प्रशासन के अलावा जन सहयोग भी पूरी तरह से सिद्दत के साथ मिल सकेगा। ये सत्य है कि दलितों के कष्ट जितने शारीरिक हैं उससे अधिक मानसिक हैं।जितना उन्हें रोटी ,कपड़ा और मकान की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना पड़ता है उससे कहीं अधिक समाज में अपने स्वाभिमान को बचाये रखने और सम्मान को प्राप्त करने के लिए करना पड़ता है। यहाँ पर मैं कम शब्दों में एक बात और लिखना चाहूंगी कि… संत रविदास ने कहा है कि…. ”वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान, फिर मै क्यों छोडू इसे, पढ़ लू झूठ कुरान। वेद धर्म छोडू नहीं, कोसिश करो हज़ार, तिल-तिल काटो चाहि, गोदो अंग कटार॥” आपने और हमने संत रविदास के दोहों को ही नहीं पढ़ा, जिसमें उस समय के समाज का चित्रण है जो बादशाह सिकंदर लोदी के अत्याचार, इस्लाम में जबरदस्ती धर्मांतरण और इसका विरोध करने वाले हिंदू ब्राहमणों व क्षत्रियों को निम्न कर्म में धकेलने की ओर संकेत करता है। चंवरवंश के वीर क्षत्रिय जिन्हें सिकंदर लोदी ने ‘चमार’ बनाया और हमारे-आपके हिंदू पुरखों ने उन्हें अछूत बना कर इस्लामी बर्बरता का हाथ मजबूत किया। इस समाज ने पददलित और अपमानित होना स्वीकार किया, लेकिन विधर्मी होना स्वीकार नहीं किया आज भी यह समाज हिन्दू धर्म का आधार बनकर खड़ा है।… सुनीता दोहरे प्रबंध सम्पादक इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़
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