Menu
blogid : 12009 postid : 931525

तेरी नफरत मे वो दम नही

sach ka aaina
sach ka aaina
  • 221 Posts
  • 935 Comments

10885445_666106250168299_441601151034225195_n

( तेरी नफरत मे वो दम नही 2 कवितायें )

1– एक दिन सूर्योदय अवश्य होगा

सुनो ! ये कैसा सुखद एहसास है, क्या इसे ही प्रेम कहते हैं ?
और अगर ये प्रेम नही, तो क्या ये महज एक आकर्षण है
चलो मान लेती हूँ कि ये एक आकर्षण है
तो फिर इसके एहसास की अनुभूति इतनी सुखद क्यूँ है
क्यूँ तुमारी वो चंद लाईने दिल में तूफ़ान मचाती हुई
मन में जीने की एक जिजीविषा पैदा कर देती हैं और
मैं असहाय सी तुम तक खिंची चली आती हूँ मैं जानती हूँ “सुनी”
ये आकर्षण नही ये प्रेम है वो भी शुद्ध, गंगा की तरह पवित्र,
निश्छल, शीतल और गुलाब के फूल की तरह सुर्ख और शर्मीला
जैसे किसी नशे की तरह नशीला, महसूस करने मात्र से व्यक्ति
चला जाये कोई, जैसे दूसरी सपनों की सतरंगी दुनियां में
जहाँ मैं और तुम का फर्क ना हो, जहाँ मैं और तुम “हम” हो जाएँ
ताकि प्रेम में प्रेम से “हम” की परिभाषा गढ़ सकें ……
इस पावन सुखद क्षण को मैं अपने अन्दर समेट लेना चाहती हूँ
ठीक तुम्हारे इस कथन की तरह “मैं हूँ ना तुम्हारे साथ हमेशा”
और मैं उस पल को समेट लेती हूँ अपने आपमें ठीक उस तरह
जैसे मक्के का भुट्टा अपने दानों को छुपाने लिए पहन लेता है “पैहरन”
लेकिन मुझे पता है कि हकीकत की दुनिया चाहत के लिए नही है
और मेरे आंसू समेट लेते हैं मेरे अन्दर उठते असहनीय दर्द को l
रोज़ दिन निकलता है रोज़ रात होती है, आंसू आता है गिर जाता है
रोज़ मिलन और विरह का अलाव जलता है प्रेम की बातें परवान चढ़ती है
मैं जानती हूँ प्रेम एक ऐसी लालसा है जिसका कोई छोर नही
ये ठीक ऐसे मुंह लगता है कि दिमाग की नसे सुन्न कर देता
ठीक ऐसे जैसे देशी ठर्रे की तरह सर चढ़कर बोलने वाला नशा
जब पूरे उन्माद पर होता है तो भूल जाता है संस्कारों की सरहदें
जब प्रेम में संस्कारों की सरहदें पार होंगी, तो समाज विचलित होगा
जब समाज विचलित होगा तो एक नया अध्याय शुरू होगा लेकिन
फिर भी प्रेमियों को जलना है और जलते रहेंगे इसी कामना में
कि एक दिन सूर्योदय अवश्य होगा…….
=======================================
2 – ख़त उसकी मोहब्बत के

ख़त उसकी मोहब्बत के, सारी ज़िंदगी मैं पढ़ नही पाई
चाहा सबक जो याद करना तो वो, खुदगर्ज मुझको कहते हैं
हो जाते हैं जब वो खफा मुझसे, तो जिद मैं छोड़ देती हूँ
मगर ये दोस्त फिर भी वो, बेवफा मुझको कहते हैं
झलक एक मुस्कराहट की, लवों पे लाने की खवाहिश में
जब मैं फूट कर रोती हूँ तो वो, बुजदिली का नाम देते हैं
ले रहा है वो इम्तिहां दर इम्तिहां, मेरी नवाजिस का
सियाही ज़िंदगी की सूखी जब तो वो, पन्ना खींच लेते है

शिद्दत से जो की जाए, हुई है क़द्र हर इक इबादत की
उसकी क़ीमत नहीं होती, जो मुफ्त में लोग लेते हैं

ये समझ ले दोस्त तू भी, दर्द कभी बेजुबां नहीं होता
दिन हर एक का बदलता है, लेकिन जब वक़्त आता है
तुम कभी मेरी शराफत को,  मेरी बुजदिली मत कह देना
चले जब तक नही ट्रिगर, लगे असलहा एक खिलौना है ….
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply