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दलितों के दहकते दस्तावेज…..

sach ka aaina
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sunita dohare

दलितों के दहकते दस्तावेज…..

मोदी सरकार सबका साथ सबका विकास के दावे कर रही है परन्तु बीजेपी की अपनी पार्टी शाषित मध्य प्रदेश में आज भी दंबगो की दंबगई दलितों पर एक गाज के सामान गिर रही है l देश के अलग-अलग राज्यों में दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं पर बढ़ रहे अत्याचार कम नहीं हो रहे और देश की सरकार बड़ी-बड़ी बातें करते नहीं थकती। दलित समाज जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकताओं जैसे रोटी कपड़ा और मकान से सदियों तक वंचित रहा है। आज भी इसकी मुकम्मल व्यवस्था नहीं है इनके पास। सरकारें पौष्टिक भोजन की उपलब्धता का दावा करती रही हैं। दूध तो दूर, दलित बच्चों को मांड (चावल का पानी) भी नियमित नसीब नहीं होता। ऐसी दु:खद अनुभूतियां सभ्य-शहरी, संपन्न समाज के पास नहीं हो सकतीं। मेट्रोपोलिटन शहरों में रहने और पांच सितारा होटलों में बैठकर दलित समाज के विकास के लिए योजना बनाने वालों के पास जमीनी हकीकत का ज्ञान नहीं है l
मैं कब कहती हूँ कि पहले से नहीं हो रहा, आप इतना तो मानते ही होंगे कि इतने सालों से एक ही सरकार को झेलने वाली आवाम ने मोदी सरकार को प्राथमिकता क्यूँ दी, वो इसलिए कि जनता को ये आश्वासन दिया गया था कि मोदी सरकार उनके हित में सोचेगी और इस तरह के अपराधों पर लगाम लगाएगी बहरहाल, इस सरकार द्वारा भारतीय जनमानस से भेदभाव के विभेद को मिटने ऐसा कोई सिद्धांत भी दिखाई नहीं देता जिसका कठोरता से पालन हो व एक ही झटके में भेदभाव की रीढ़ टूट जाए, परंतु यह भी संभव नहीं क्योंकि इस विभेद को मिटाना न तो हमारा राजनैतिक तंत्र चाहता है और न ही वह कथाकथित धर्मावलंबी जो आज भी निरे मूर्ख पंडित को आदर देता है व विद्वान दलित को भेदभाव के नजरिये से देखता है। गौरतलब हो कि मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिला मुख्यालय से महज 15 किलोमीटर दूर घटवानी गांव मे करीब 200 दलित एक कुऐ का गंदा पानी पीने को सिर्फ इसलिऐ मजबूर है क्योंकि गांव के दबंग छुआछूत की भावना के चलते उन्हें पास के हैडपंप से पानी नहीं भरने दे रहे हैं इससे उनके छोटे छोटे बच्चों और परिवार की तबीयत के साथ अन्याय हो रहा है. इसकी शिकायत जनसुनवाई में करने के बावजूद इन दबंगों पर अभी तक कोई कारर्वाई नहीं हुई है सालों से पानी के लिए पीड़ा झेल रहे बस्ती के लोगों ने तंग आकर जिला प्रशासन से गुहार लगाई, लेकिन वहां भी उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। कलेक्टर शेखर वर्मा गांव के दबंगों की ज्यादती की बात स्वीकार करते हैं। सबसे शर्मनाक और हैरानी की बात यह है कि दलितों को कुएं का गंदा पानी पीने के मजबूर करने वालों पर कार्रवाई करने की जगह प्रशासन दलितों की बस्ती में एक अलग हैंडपंप लगाने की बात कर रहा है। इन सब के बीच बडा और अहम् सवाल ये उठता है कि क्या मानसिकता बदलने के लिऐ बड़े बड़े वादे करने वाली भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार अपना मुंह बंद करके क्यूँ बैठी है ! इस तरह के अत्याचार दलित समाज का भोगा सच है, जहां जाति व्यवस्था की खतरनाक खायी है और वहां से आने वाली दर्दनाक चीखें हैं। आप सब तब कहाँ चले जाते हैं जब हर रोज होने वाली वर्णित घटनाएं पढ़कर आपका जमीर नहीं जागता, इस तरह के प्रसंग वर्णव्यवस्था की निमर्मता के प्रमाण हैं।  जब वोट की जरुरत पड़ती है तो इन्हें दलित ही याद आते हैं लेकिन सरकार पर ऊँगली उठाने वाले लोगों पर आप जैसे लोग ही सहयोग की जगह प्रताडऩा देते हैं। सरकार का काम महज मानवाधिकार संरक्षण प्रदान करने वाले कानूनों को बनाना ही नहीं है बल्कि इसके परे ठोस पहल करना भी है। सरकार का काम जाति आधारित हिंसा व भेदभाव करने वालों को सख्त से सख्त सजा देना भी है  इंटरनेशनल कन्वेंशन ऑन सिविल एण्ड पॉलटिकल राइट्स के अनुसार भारत सरकार का दायित्व एक ऐसा माहौल बनाना है जिसमें दलित महिलाओं को यंत्रणा, गुलामी, क्रूरता से आजादी मिले, कानून, अदालत के सम्मुख उसकी पहचान एक मानव के नाते हो।
समाज में अभी भी सामंती मानसिकता कायम है और दलित समुदाय बहिष्कृत जीवन जीने को विवश है। देश में घट रही इन घटनाओं को रोकने के लिए किए जा रहे प्रयास नाकाफी दिखते हैं। एक ओर दलित सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से बहिष्कृत हैं और दूसरी ओर उन पर हुए अत्याचारों की कोई सुनवाई नहीं हो रही हैं। देश में कानून व्यवस्था की स्थिति गंभीर है पर सरकार इन मामलों में उदासीन रवैया ही अपना रही है। सरकार यह दावा तो कर रही है कि देश को भयमुक्त बनाना है पर सरकार द्वारा ली गई इस जिम्मेदारी का परिणाम दिख नही रहा है और दलितो का उत्पीड़न जारी है। देखा जाये तो थानों में दलितों एवं कमजोर तबकों की सुनवाई नहीं होती उल्टे उन्हे वहां से भी प्रताड़ना ही मिल रही है। जनाब अगर आप सब गौर फरमाए तो पाएंगे कि इस देश में इंडियन पेनल कोड की सभी धाराएँ इस तरह के अपराधों के आगे खामोश हो जाती हैं। लूटपाट, झोपड़े जलाना, बलात्कार, हत्या, मारपीट, जल आपूर्ति रोक देना,  दबंगों के सामने चारपाई पर ना बैठना अगर बैठे तो लात मारकर अपमानित किये जाना, दलित महिलाओं को नंगा करके गाँव गलियों में घुमाना, जूते की नोक पर ठाकुरों की लाठियाँ का कहर बरसना, इतने अधिक ब्याज पर कर्ज देना कि पीढ़ियों तक न चुका सके फिर भी सरकारें चुप और दलितों के पास सहन करने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
ये सब जानते हैं कि अत्याचार का कोई मजहब नहीं होता तो आपको ये भी मानना पड़ेगा कि राजनीती मजहब पर नही की जा सकती l मजहब पर होने वाली राजनीति का अस्तित्व ना के बराबर होता है l यहाँ पर मोदी सरकार पर इल्जाम लगाने का मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि अगर मोदी सरकार चाहती तो कठोर कदम उठाते हुए दोषियों पर कार्यवाही करवाती क्यूंकि दलितों के मामलों को लेकर इनकी सरकार हमेशा उदासीन रही है, प्रदेश सरकारों के मुख्यमंत्रियों की इतनी औकात कहाँ कि जिगर खोलकर ये कह सकें कि मेरे राज्य में दलितों और महिलाओं पर अत्याचार करने वालों पर हम सख्त कानूनी कार्रवाई कर कड़ी सजा देते हैं…. दलितों को शेष समाज के साथ भेदभाव रहित जीवन जीने के लिए किए जा रहे सरकारी एवं गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद उनके सामाजिक बहिष्कार के नए नए रूप देखने को मिल रहे हैं पूरे देश में अधिकांश झगड़े जमीन को लेकर होते हैं। उच्च जाती को यह अच्छा नहीं लगता कि एक दलित किसी तरह भी जमीन का मालिक बने। भले ही उसकी जमीन काफी छोटी हो या फिर बंजर ही क्यों न हो। दूसरी ओर यदि कोई दलित व्यक्ति उच्च जाति के इलाके में सज-धजकर कहीं निकलता है, तो यह भी इन उच्च जाति वालों को गवारा नहीं। बात यहाँ तक होती, तो समझ में आ सकता है। इस प्रजातांत्रिक देश में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जिस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। यदि किसी दलित की शादी हो रही हो, तो उसकी बरात इन उच्च जाति के इलाके से नहीं गुजर सकती। यही नहीं, उस इलाके में दलित डांस नहीं कर सकते। वहाँ पटाखे नहीं चला सकते। उस स्थान पर खुशियाँ नहीं मना सकते।ये सत्य है कि अब दलितों पर सीधे प्रहार नहीं किया जाता, बल्कि उन पर कई आरोप लगा दिए जाते हैं, मसलन दलित युवा ने सवर्ण महिलाओं से छेड़छाड़ की है या करने का प्रयास कर रहा था, वह शराबी था जिससे गांव का माहौल खराब हो रहा था, सवर्णों का दलितों  द्वारा विरोध किया जा रहा था आदि और फिर उसके बाद उन पर हमला किया जाता है। ऐसे आरोपों का निराधार होना अचरज की बात नहीं, क्यूंकि ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर पड़े दलितों की सामाजिक हैसियत अभी भी निम्न है और प्रशासन, पैसा और सत्ता के गठजोड़ में सवर्णों की तुलना मे वे कहीं नहीं टिकते। इसलिए दलितों पर यहां लगातार जुर्म हो रहे हैं देश में सामंती और तुगलकी फैसले रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं।
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक

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