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नारी हृदय की अंतहीन सीमारेखा

sach ka aaina
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sunita dohare

नारी हृदय की अंतहीन सीमारेखा…..

अगर पुरुष वर्ग ये समझने लगे कि मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रखकर ना रिश्ते बनते हैं, ना  रिश्ते निभाए जाते हैं तो कुछ हद तक मानवीय मूल्यों को संवारा जा सकता है…..

जहाँ भावनाओं का जन्म ही नहीं होगा, वो समाज केवल विद्रोह को जन्म दे सकता है, आंदोलन  को नहीं,क्यूंकि कोमलता का अभावजीवन में दुखों को संकलित करता है l
आज का आधुनिक समाज ये समझने लगा है कि गुण से रूप अधिक उत्तम है, धन ही सब कुछ है इसलिए धन से ही योग्यता हासिल की जा सकती है तो इसी सोच के चलते व्यक्ति व्यभिचार की और बढ़ जाता है, धन की धुन में समाज ये भूल जाता है कि जब योग्य व्यक्ति अपने गुण और शक्ति के आधार पर कुछ अर्जित नहीं कर पाता तो उस विद्वान् व्यक्ति का आंकलन उसकी बुद्धि की मापतौल पर दोषारोपण कर किया जाता है तो आप ही बताइए ऐसे में नवीन संरचना का जन्म  कैसे हो सकता है। जब नवनिर्माण नहीं तो नारी चाहे किसी भी समाज में हो वहां वो सम्मानित नहीं हो सकती l कहते हैं कि भारतीय दर्शन नारी को देवी मानता है, देवी के रुप में मंदिर में जगह देता है पर जब तक आम जीवन में नारी के साथ विषमताएँ रहेंगी, तो मंदिर की देवी केवल कहने की बात होकर ही रह जाती है l ये सत्य है कि नारी शक्ति स्वरूप साधना की सशक्त अवधारणा है। जिसमें प्रजनन एवं विकास दोनों ही समाहित हैं। नारी देवी स्वरूप है और इस देवी की शक्ति से हम सभी भली-भांति परिचित हैं। समझौता नारी का दूसरा नाम है। भारतीय नारी के त्याग और बलिदान की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है भारतीय नारी में सहनशीलता कूट कूट कर भरी होती है जिसके कारण वह ज्यादातर बिना शिकायत के अपना जीवन अपने पति, बच्चों व घरवालों की खुशी के लिए काट देती है। लेकिन आज नारी ही सबसे ज्यादा प्रताडि़त है क्यूँ ? क्यूंकि इस प्रताडऩा में नारी की सहजता समाई है,  पर जब उसकी सीमा समाप्त हो जाती है, तब उसके प्रचण्ड रूप को भी देखा जा सकता है, जहाँ विनाश की अवधारणा स्वतः जनित हो जाती है।
भारतीय समाज में नारी स्थान अनुपम है स्त्री के साथ भेद दृष्टि और लैंगिक असमानता के सैकड़ों संदर्भ समस्त धर्म, साहित्य और परम्परा में बिखरे पड़े हैं। कोई भी धार्मिक मान्यता इससे अछूती  नहीं है। सम्प्रदाय मानसिकता में जीने वाली परम्पराएं मानव के रूप में स्त्री को प्रतिष्ठित नहीं कर पायी हैं। जो सभ्य समाज नारी को देवी के रूप में पूजता है आज उसी सभ्य समाज से नारी को अपने आस्तित्व के लिए लडऩा पड़ रहा है, कहने को ये सभ्य समाज होने वाले आडंबरों में सर्वप्रथम ‘कन्या देवी’ का पूजन करते हैं लेकिन इसी पूजन करने वाले आडंबरी समाज में अपनी इन कन्या देवियों को जन्म से पहले ही उखाड़ फैंकने की पुरजोर कोशिश करते हैं। बेटी के नाम पर सौ-सौ कसमें खाने वाला समाज बेटी को उसकी मां की कोख में ही दफनाने में गुर्रेज नहीं करता l
हाँ मैं मानती हूँ कि आधुनिकता के नूतन आयामें का स्पर्श करने की अपनी संस्कृति के नैतिक मूल्यों, विशिष्टताओं को भुला देना कदापि अच्छा नहीं माना जा सकता और ना ही स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छन्दता, अश्लील वेशभूषा, सफेदपोशी नौकरी, शारीरिक श्रम न करना सांस्कृतिक व धार्मिक दायित्वों से उन्मुक्त होना न्याय संगत माना जा सकता है।
कहते हैं कि नारी परिवार की धुरी है। उस पर परिवार की स्थिति और अवस्थिति का चक्र निर्भर करता है उसको अपनी धुरी की साथर्कता दर्शानी है अपने होने का आधार प्रमाणित करना है कहा जाता है नारी से परिवार, परिवार से समाज और समाज से देश सशक्त बनता है। कार्य की सफलता के लिए भारतीय नारी सदैव ही आवश्यक मानी जाती रही है। अगर नारी आजाद है तो क्यूँ नारी अपने सम्मान को खो रही है, क्यूँ निर्माता वर्ग अपने उत्पाद को बेचने के लिए कम से कमतर होते जा रहे वस्त्रों में नारी वर्ग को चुनते है स्त्री विमर्श के नाम पर देह को परोसते हैं, समाज की कथित महिलायें देह व्यापार में क्यो जा रही है,  क्यूँ नारी के साथ बलात्कार हो रहे हैं, महिलाओं में आत्महत्या की प्रबृति क्यो बढ़ रही है, आज भी नारी दहेज़ की बजह से जिन्दा जलाई जा रही है, क्यूँ प्रताड़ना और उत्पीड़न नारी जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनते चले जा रहे हैं। क्यूँ मीडिया की चकाचौंध नारी देह का शोषण कर रही है, क्यूँ नारी संक्रमण की पीड़ा से गुजर रही है, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, बलात्कार जैसे घिनौने अपराधों में क्यूँ नारी की बलि दी जाती रही है ? क्या इन सवालों के जवाब आपके पास हैं या फिर देखकर अनदेखा करना हम सबकी नियति बन गई है l इन सभी सवालों के जबाब क्या ये सभ्य समाज दे सकता है या फिर इन सवालों के जवाब केंद्र सरकार, राज्य सरकार, जिला सरकार व पंचायतें दे सकती है l नहीं, इन सवालों के जवाब इनमें से किसी के पास नहीं है बस इन सभी प्रश्नों के जवाब आज प्रत्येक मानव को सोचने पर विवश अवश्य कर रहे हैं l
मुझे लगता है कि पुरूष निर्मित आधार तल पर खड़े होकर, स्वयं को उत्पाद मानकर, देह को आधार बना कर स्त्री विमर्श, नारी मुक्ति की चर्चा करना भी बेमानी सा लगता है इसलिए यहाँ मैं इस वर्ग को हटाकर अपनी बात कह रही हूँ सही मायने में देखा जाये तो पुरूष वर्ग के विरोध में खड़ी नारी शक्ति स्वयं को नारी हांथों में खेलता देख रही है l आज नारी योग्यताओं के शिखर पर जा कर भी, दहेज़ की बलि चढ़ी तो कभी, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, बलात्कार से छली गई तो कभी, परित्यक्ता बनी, तो कभी किसी के घर को उजाड़ने का कारण बनी, बजह अगर देखी जाये तो यही निकल कर सामने आती है कि स्त्री ने कभी पुरुष और पुरुष ने स्त्री पर जहाँ विश्वास नहीं किया वहाँ नारी ना श्रद्धा बनी ना पुरुष को ही मान सम्मान मिला।
आए दिन बढ़ती व्यावहारिकता, प्रदर्शनप्रियता, दिशाहीनता और संवेदनहीनता आज की मूल चिंता है। अब ऐसे हालातों में भारतीय नारी को अपनी आत्मशक्ति पहचानने की आवश्यकता है क्यूंकि इस संस्कृति व संस्कारों को केवल भारत की पूज्य नारियां ही अपनी आत्मशक्ति को जगाकर साहस, र्धेय, संयम, त्याग और तपस्या से ही जीवित रख सकती है । इसलिए कहते हैं कि मैं “नारी” …….

अपाहिज व्यवस्था का अध्ययन कर रही हूँ
मैं नारी हूँ नारी धर्म का पालन कर रही हूँ
नारी हूँ स्वयं को संवारने का जतन कर रही हूँ
हाँ फर्ज की दहलीज को नमन कर रही हूँ

सम्मान से जीना है जीने का जतन कर रही हूँ
हाँ मैं अपने सुखों को दुखों से अलग कर रही हूँ
ये जाति धर्म, गरीबी अमीरी समाज में चल रही है
इसे मिटाने की रात दिन, जद्दोजहद कर रही हूँ

तुम्हारी कसम को कसम से मनन कर रही हूँ
हाँ मैं फिर से सुबहो-ओ-शाम स्मरण कर रही हूँ

इन गहरे अंधेरों में रौशनी की जगन कर रही हूँ
रिश्तों को सुलझाने का फिर से प्रयत्न कर रही हूँ

चल छोड गम की बातें, क्यूंकि इसे मैं सहन कर रही हूँ
तुम्हारी थी तमन्ना, तो सुखों का यहाँ मैं हवन कर रही हूँ

तुम्हारे एहसास का तजुर्बा यूँ मिला, सर तक भीग गई हूँ
एक बार देख ले आके, तेरे आसुओं को मैं नमन कर रही हूँ

सुनीता दोहरे
प्रबंध संपादक
इण्डियन हेल्पलाईन न्यूज़

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