कुछ लोगों ने मुझसे मेल के जरिये ये फरमाइश की कि आप जागरण जंक्शन पर सब विषयों पर लिखतीं है लेकिन बच्चे के मन की बातों पर कवितायेँ भी लिखिए ! आपका आगामी ब्लौग बच्चे के मन के बारे में हम पढना चाहते हैं ! तो इसीलिए अपने पाठकों की फरमाइश पर एक कविता लिख रही हूँ और उसी के साथ कुछ रचनाएं भी पेश कर रही हूँ !!!!!! मेरी कविताएं ( १ ). दादा जी से बंधी है डोरी जब भी दूर देश से दादाजी का, आ जाता है संदेशा खुश हो जाता है वो ऐसे, जैसे दादा जी के आने पर व्याकुल बैठा राह निहारे, भावविहल हो खुश हो जाता पोता सबसे अच्छे, सबसे प्यारे, सबसे न्यारे हैं मेरे दादा जी ….. कभी ठुमकना-कभी लिपटना, छुपा-छुपी का खेल खेलना दादा-दादा कहकर हंसना, बार-बार फरमाइश करना रोज निखरते देख-देख कर, कितने खुश हो जाते दादा सबसे अच्छे, सबसे प्यारे, सबसे न्यारे हैं मेरे दादा जी ….. जैसे भौंरे और मधुमक्खी, मधु-सुर में गीत सुनाते दादा जी की हंसी मधुर धुन, मन को मेरे खूब लुभाते जब भी कोई मुसीबत आती, मेरी ताकत बन जाते दादा सबसे अच्छे, सबसे प्यारे, सबसे न्यारे हैं मेरे दादा जी …. दादा जी ने छड़ी घुमाकर, जब भी छेड़ी अपनी तान मुझसे आकर कहते अक्सर , अपना करो लगन से काम दादा घंटों बैठ निहारें मुझको, जैसे हमही हों उनकी जान सबसे अच्छे, सबसे प्यारे, सबसे न्यारे हैं मेरे दादा जी ….. जो भी पढना पढ़ लो मुझसे, देखो फिर ना कहना ना तुझे टिउशन की क्या जरुरत, जब हम सब है तेरे साथ जो गिरे उठे है वो ही जग में, ऊँचा करे है अपना नाम दाग दिए हैं मूक प्रश्न, फर्ज से मिलकर आये मेरे दादा सबसे अच्छे, सबसे प्यारे, सबसे न्यारे हैं मेरे दादा जी ….. (२) मुझको बनाके आइना पत्थर को तराशने का हुनर खूब उसे आता था… गिलौरी दर्द की नमकीन हो अगर डाल मीठी सौप को सजाना खूब उसे आता था….. देह हो दीवार हो, हो कांच की या हाड़ की तोड़ना और जोड़ना खूब उसे आता था…. एक खूबी और थी बेजोड़ थी मुझको बनाके आइना फिर खेलना खूब उसे आता था…. बेबसी लाचारगी का सीना चीरकर कई पुश्त तक एक मुश्त लूटना खूब उसे आता था….. जोड़तोड़ के खेल में, तोडना खूब सीख लिया जोड़ के रिश्तों की नींव, जिन्हें तोड़ना खूब उसे आता था……. कैद कर ली थी उसने मेरी शख्सियत निगल चुका था मेरे वजूद का अंश जिसे निगलना खूब उसे आता था….. चली जाओ जिन्दगी से तुम मेरी यहाँ कोई नहीं है तेरा, जब कहा था उसने बार बार रिश्तों को तोडना खूब उसे आता था …. फूंक के घर मेरा, हंस रहा था वो जख्म देके हवा देना खूब उसे आता था….. —————————————– (३)इजाजत न दी सर झुकाने की हक़ीक़त ना पूछ मेरे दोस्त, मेरे अफ़साने की ये दुनियां है सच और झूठ के फ़साने की ये दिल भूल जा अब, ये बात नही गुनगुनाने की लोग पूछते हैं बुझी बुझी सी क्यों रहती हो कैसे कहूँ आदत थी, भरपेट खा के मुस्कराने की रोटी तो बड़ी चीज है, नहीं देता जमाना प्यासे को पानी जर,जमीं,जोरू के जाते ही, बदली नज़र ज़माने की ऊपर वाला भी कमाल है गरीबों की नही सुनता एक निवाला न दिया और कीमत लगा दी मुस्कराने की आँखें खुद की, नींद खुद की, वो सोने को छत नही देता हँसती हुई रात को आई नींद तो, टूटी खाटो ने पकड़ ली इंसानियत मर गयी ईर्ष्या की बलि चढ़ती हैं जिंदगियां जबसे गुनाहो के मदारी ने हाथ में कटारी है थाम ली दुल्हनें है सफ़ेद लिबासों में, मुर्दों पे लाल जोड़ा सजता है इश्क में खाके दगा, उन्हें जल्दी है कफ़न सिलवाने की रखने को हम भी रख सकते है ठोकर पे जमाने को मगर मेरे जमीर ने, इजाजत न दी सर झुकाने की……. सुनीता दोहरे …..
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