मृगतृष्णा सी छलती घूमे, ये कैसी कस्तूरी है ? sach ka aaina अपने किरदार को जब भी जिया मैंने, तो जहर तोहमतों का पिया मैंने, और भी तार-तार हो गया वजूद मेरा, जब भी चाक गिरेबां सिया मैंने...
१- मृगतृष्णा सी छलती घूमे, ये कैसी कस्तूरी है ? अब तक जो कथा अधूरी है, बस वो मेरी मजबूरी है सच की महिमा बाहर आये, तो करना तर्क जरूरी है खुली सियासत बैठ के खेले, इन्हें होती नहीं सबूरी है धन दौलत के प्यादों की, यहाँ खून से सनी तिजोरी है कुर्सी-कुर्सी करते-करते, मजबूरों के हाँथ से छीनी रोटी है इनका हो जाता है पतन तभी, इन पर चढ़ती जब अंगूरी है तन और धन की प्यास न बुझती, ये कैसी मजबूरी है इन बेपैन्दों की क्या बात करूँ, जिनकी हर हरकत लंगूरी है छप्पन छुरी, बहत्तर पेंच उसमें, इसलिए चलती छप्पन छुरी है जिस्म में ज़मीर रहे ना रहे, जेब में रूपया होना बहुत जरूरी है
इन्हें चढ़ते हैं छप्पन भोग थाल के, कभी चांदी वर्क गिलौरी है हित अनहित भी नहीं सूझता, मृगतृष्णा सी ये कैसी कस्तूरी है
चैन-ओ-सुकूं से घर के भीतर नींदे, अब लेना बहुत जरूरी है भटक ना प्राणी, मृगतृष्णा सी छलती घूमे, ये कैसी कस्तूरी है
ये चिलमन और वो चिलमन सबकी हर तस्वीर अधूरी है बफादारी की क्या बात करूँ, ये तो अब केवल दस्तूरी है ! २- बूढ़े बरगद की आँखें नम हैं गाँव गाँव पे हुआ कहर है, होके खंडहर बसा शहर है बूढा बरगद रोता घूमे, निर्जनता का अजब कहर है नीम की सिसकी विह्वल देखती, हुआ बेगाना अपनापन है सूखेपन सी हरियाली में, सुन सूनेपन का खेल अजब है ऋतुओं के मौसम की रानी, बरखा रिमझिम करे सलामी बरगद से पूंछे हैं सखियाँ, मेरा उड़नखटोला गया किधर है सूखे बम्बा, सूखी नदियाँ, हुई कुएं की लुप्त लहर है निर्जन बस्ती व्यथित खड़ी है, पहले सुख था अब जर्जर है
शहर गये कमाने जब से, गाँव लगे है पिछड़ा उनको राह तके हैं बूढ़े बरगद, व्यथित पुकारे विजन डगर है
कैसी ये ईश्वर की लीला न्यारी, मन में मेरे प्रश्न प्रहर है तोड़ के बंधन माँ का आंचल, इनके लिए बस यही प्रथम है घर-घर दिल हैं लगे सुलगने, बच्चों की किलकारी कम है उजड़ गयी कैसे फुलवारी, पहले घर था अब बना खण्डहर है …. सुनीता दोहरे …..
Read Comments