आज उसे ऑफिस मैं न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि उसके इन्तज़ार की घड़ियाँ अब समाप्त हो चुकी हैं वो तेज़ी से कार ड्राइव करती हुई घर को जा रही थी ! शाम के धुंधलके में थक हार कर घर पहुँचते ही उसके हाथ में एक लिफाफा आया तो लगा कि जैसे सब कुछ सिमट कर एक लाल घेरे में घूमने लगा है इस लिफ़ाफ़े को अपने हाथों में लेकर, उसके भीतर बसी शब्दों की ऊष्मा को उसने अपने अंतरमन में महसूस किया ! एक भीनी भीनी सी खुश्बू “जानू” के हांथों की छुअन को महका रही थी हाँ “जानू” ही नाम दिया था सुनील ने उसे ! सुना है प्रेम में वस्तुएं भी जीवित हो उठती हैं पत्थर और वृक्ष तुमसे बातें करने लगते हैं सूर्य, चन्द्रमा, यह सारी सृष्टि सजीव हो उठती है आज बरसों बाद सुनील के ख़त को अपने दोनों हांथों में उठाकर रो पड़ी थी वो ! आंसुओं को थाम कर उसने जैसे ही लिफाफा खोला …. अनगिनत दर्द की तड़फ ने सहला दिया था उसे…….
“उस प्रेम के ग्रन्थ में जब “जानू” ने सिर्फ “मैं” की आह्मियत देखी तो उसकी पलकों से ढलके आंसुओं ने “मैं” की परिभाषा को ही बदल दिया !!!!
“हम” शब्द ना जाने कहाँ विलीन हो गया और रह गया तो सिर्फ मैं का वजूद !!!!!
उसके मुंह से अनायास ही निकला “सुनील काश तुम मुझे सच्चा प्यार दे पाते तो मैं तुम्हारे क़दमों में बिछ जाती तुमने मुझे कभी प्रेम किया ही नहीं लेकिन मैं तुम्हे रूह से प्यार करती रही और मैं तुममें उस प्यार की रूह को तलाशते-तलाशते अपने वजूद का अंत कर बैठी, किसी ने ठीक ही कहा है कि “जब प्रेम नहीं होता तो जीवित लोग भी वस्तु बन जाते हैं” ख़त में लिखे तुम्हारे शब्द “मैं” ने “हम” शब्द की हत्या न जाने कब कर दी…….
और फिर जनम हुआ तिरस्कार, नफरत का…..अचानक वो बडबडा उठी कि…..
ख्वाहिशें बहुत थी आँचल में सजाने के लिए
लेकिन इंसान तो इंसान,
ये खुदा भी खुशियाँ किश्तों में अदा करने लगा !!!!
अचानक तेज़ी से निशा ने सुनील की तस्वीर को उठाकर फैंक दिया और चिल्लाई अब और नहीं !!!! नहीं सुनूंगी तुमको ! तुम्हारे हर ख्वाब को मैं जमींदोज कर दूंगी….क्योंकि अब सामने खड़ी है सच्चाई जिसे सहने की ताकत है मुझमें…
तुम सुन रहे हो तो सुन लो
तुम हाँ तुम ! तुम वो कटी हुई पतंग हो
जिसे पकड़ने की जदोजहद में
मैं बार-बार भागती रही, गिरती रही
बे-बजह परत-दर-परत तुम्हारे सामने
अपने अस्तित्व को नकारती रही
अब मेरा अस्तित्व, मेरा वजूद ही मेरी ताकत बनेगा, दुनिया की वो उंचाई मैं हासिल करुँगी जिस तक तुम्हारी परछाईं भी नही पहुँच सकती…….
दूर होते हुए सूरज को अँधेरा निगल चुका था शाम की ठंडी बयार निशा को एक सुकून दे रही थी क्योंकि अपने अनसुलझे सवालों के जवाब उसे मिल चुके थे और निशा की माँ के चेहरे पर चिंता की लकीरें जंवा हो रहीं थी माँ सोच रहीं थी कि बेटी अपना पहाड़ सा जीवन कैसे व्यतीत करेगी ! माँ के चेहरे पर निगाह गड़ाते हुए निशा ने कहा माँ मैं कमजोर और लाचार नहीं हूँ तुम्हारे प्यार और विस्वाश की छत्र छाया के रहते हुए “हम” शब्द की परिभाषा का अर्थ मुझे बखूबी मालुम है…..
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