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क्योंकि है नारी ही नारी पर फिर से भारी…..

sach ka aaina
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sunitaaaaaa

क्योंकि है नारी ही नारी पर फिर से भारी…..

अभी से आँख क्यों नम है तुम्हारी
अभी तो है वो राज खुलने की बारी
एक लफ्ज पर सिसकते हो क्यों तुम
अभी सुनी ही कहाँ है तुमने दास्ताँ हमारी
एक वक्त से रोज कत्ल होता रहा मेरी ख्वाहिशों का
क्योंकि तेरे क़दमों में पड़ी थी किस्मत हमारी
सुनी वो रेत का घरौंदा सहेजती तो कैसे
क्योंकि समुन्दर से दुश्मनी थीं जन्मों से हमारी
प्रेम कि बिसात पर पासा ही बेरंग था
भीगी शामों को तन्हा रही थी मोहब्बत हमारी
सुनो ! दिल मेरा खिलौना नहीं था हुजूर
क्योंकि वो इश्क का जूनून और इबादत थी हमारी
वो जमाने गये जो मैं साजिशे न समझ सकूँ
अब तो समुन्दर की थाह मांप लेती हैं आँखें हमारी
सुनो हमें इल्म है इस जहाँ की फितरत क्या है
सच सामने रूबरू हो जाये, ये जुस्तजू थी हमारी

क्योंकि नारी खेल अब शुरू हो चुका है
अफसोस ता उम्र नारी जाति पर रहेगा
क्योंकि नारी ही नारी के है अरमां हरने वाली
मुझे खुल के दरीचे में अब रोना नहीं है
आँखों में  अब कोई सपना बुनना नहीं है
क्योंकि है नारी ही नारी पर भारी…..

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कभी तो हो “पुरुष विमर्श” का आगमन

नारी एक घर से निकल कर
फिर आती है दूसरे घर में  वहाँ,
जहाँ दूर तलक गहरे से जमीं हुईं थीं जड़ें उसकी
फिर से रोप दी जातीं है दूसरे आँगन में !
हर पल  व्यस्त रहकर
पुरुष को, उसके परिवार को
सहेजती सवांरती रहती है
बच्चों की परवरिश में ढूढती हैं अपनी खुशियाँ !
परिवर्तन की आस लिए जूझ रही नारी
उन सवालों के जवाब की प्रतीक्षा में
एक चौखट को सहेजती रही है नारी
पर तब तक पुरुष निगल जाता है उसके वजूद का अंश !
पर अब पुरुषों ने तैयार कर दिया एक नया तंत्र
षड्यंत्रों की परिभाषाओं को बदल कर
समाज को दिया ये नया अचूक नुस्खा
और तैयार  कर दिया “स्त्री विमर्श” का मूल मन्त्र !
अनन्त काल से चली आ रही प्रथा यही पुरानी
सदियाँ बीती युग बीते पर समय कभी न ठहरा
सदियों से है मौन खड़ा रह गया वर्तमान
हाँ नही आया सुनने में कभी “पुरुष विमर्श” का आगमन

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वो बचपन की यादें वो यूँ कर गुजरना
हमें याद आता है वो तेरे साथ चलना
वो शामें हंसीं थी,  वो दिन के उजाले
उस खुले में आसमां में छलके थे प्याले
वो रूठना-मनाना वो नाज-नखरे दिखाना
याद आता है क्यों कर वो गुजरा जमाना……

यूँ ही रोज शाम ढलकर अँधेरे में गुम हो जाना
हांथों से फिसल के यूँ जिन्दगी का दूर जाना
भूली बिसरी उन यादों का साथ निभाना
अब तो अंधेरों में गुम है एहसास जिन्दगी का
उस हंसीं मौसम के लम्हातों का गुजर जाना
याद आता है क्यों कर वो गुजरा जमाना…

सुनीता दोहरे ……


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