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मानव बनके जालिम ने, दानव की शक्ल चुरा ली

sach ka aaina
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सुनीता दोहरे प्रबंध सम्पादक

मानव बनके जालिम ने, दानव की शक्ल चुरा ली

ये आइना है रंगमंच का, बचा न कोई  खेल से इसके खाली
रंग के इसमें, छल कपट की, सब भ्रष्टों ने खूब ही होली खेली

सब मेरा है सब मेरा है करके, रिश्तों में आग लगा ली
महंगाई के इस दौर में, रोटी से उसकी थाली रही थी खाली

शहर था उसका, गाँव था उसका, पर मिला न कोई माली
मरता क्या न करता, भूख ने रिश्तों की बलि चढ़ा दी

ये माली और वो माली, फिर गया ना कोई खाली
मानवता को मार के उसने, दौलत ही दौलत भर डाली

यूँ तो ख़ुदा ने बख्शी थी, उसको रंग-ए-वफा की लाली
पर मानव बनके जालिम ने, दानव की शक्ल चुरा ली

क्या खूब तूने आवाम के क़त्ल की तरकीबें निकाल ली
मर जाएँ बिन पानी के ये बन्दे, पानी से भी दौलत संभाली

हर बूथ पे एक-एक चमचा बैठा, बूथ कैप्चरिंग करा ली
फंस के झूठे वादों पे, जनता ने अपनी कुगति करा ली

हाँथ जोड़ के खड़ा जुआरी, दांव जाए न कोई खाली
हमें देखना, हमें है करना कह, झूठों की सरकार बना ली

हादसों के इस देश में जब से, आई छटा निराली
टूजी, धरनी और कैग से, खूब छक के करी दलाली

मेरी कुर्सी मेरी ही रहेगी, तूने उसपे नजर क्यों डाली
जाति-धर्म की डगर पे चलके, सियासत की डोर संभाली

वी०आई०पी० नेताओं ने इससे अपने धंधे की आस लगा ली
लोकतंत्र की हड्डियों, खाल और मांस की खुले आम दुकान लगा ली

अपराधी जगत के दबंगों ने, हर पार्टी में अपनी धौंस जमा ली
बोफोर्स, चारा, टेलीकॉम, हवाला जैसे घोटालों की घोंट पिला ली

अदालत में जज, वर्दी में फर्ज, आज इंसान ने इंसानियत बेच डाली
कानून जेल में, खिलाड़ी खेल में, सन्तरी ने मंत्री की कुर्सी बेच डाली

सुनीता दोहरे
प्रबन्ध  सम्पादक
“इण्डियन हेल्पलाइन”
राष्ट्रीय मासिक पत्रका

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