मेरा दर्द आसुओं का दरिया बने ! उसके दिल में ये ख्वाहिश पलती रही !!
जख्म सहेजा बहुत, दिल को रोका बहुत ! अश्कों की बारिश हो आँचल पे गिरती रही !!
कोई, कहीं बेवफाई न हमसे हो जाए कभी ! इस डर से अपनी नजरों को झुकाए रही !!
शाम-ए-गम चन्द हसरतों का दरिया बना ! डूबे मंजर में जैसे सीली लकड़ी सुलगती रही !!
था समुन्दर सा विशाल तेरा आशियाँ ! बीच मंझधार क्यों नाव झुकने लगी !!
वो मेरे हैं सदा अब मेरे ही रहेंगे ! ये झूठी ख्वाहिश दिल में पनपती रही !!
अपनी नजरों मैं उसको खुदा मान बैठी ! बस यही गुनाह करके नजरें झुकतीं रहीं !!
रांझे तेरी नजरों में कैसे गिरी ये सुनी ! बस यही एक बात मन को खटकती रही !!
इस हंसी धुंधलके में तू हमसफ़र मेरा होता ! बस यही एक तमन्ना दिल में मचलती रही !! सुनीता दोहरे …..
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२-तेरे ख्यालात….
कभी वो दूर कभी पास होके रोते हैं ! उनकी मोहब्बत के बहाने अजीब होते हैं !!
फिर भी गुजार दी है जिन्दगी उनकी खातिर ! उनके घर में मुझ जैसे किरदार क़त्ल होते हैं !!
पाक दामन मैं उनके दरो-दीवार की नींव बनीं ! जहाँ उनके ख्यालात मुझे रात-दिन भिगोते हैं !!
मेरे लिए उन्हें वक्त कहाँ था कि गुनगुनाएँ मुझे ! उन जैसे ही इश्क-ए-कश्तियाँ मंझधार में डुबोते हैं !!
अब चीरके गम-ए-दरिया को सुकून पाया है ! अब कह भी लो सुनी जैसे लोग अजीब होते हैं !! सुनीता दोहरे….
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३-प्रेम का बीज…..
तुम्हारा ख़याल भी तुम जैसा है !!! एकदम कसैला, बेस्वाद…….. कसैला न कहूँ तो और क्या कहूँ तुम्हारे दिए रिश्ते के जख्मों ने ही तो समझाया है इसका फर्क मैं नहीं जानती क्यों बोया था मैंने प्रेम का वो बीज जो अंकुरित हुआ वृक्ष बना लेकिन जब फला तो दूसरे की खाने की मेज पर सजा बड़े जतन से सींचा था मैंने सोचा था तुम और तुम्हारा बारामासी प्रेम यूँ ही छलकता रहेगा बहुत गहरी थीं उसकी जड़ें हाँ तूफ़ान ही तो कहेंगे उसको जिसने इतनी आसानी से हिला दिया उस नींव को अब तुम ही देख लो उग आई न एक काँटों भरी झाड़ रिश्तों को रिश्ते चुभने लगे मैं तुम्हे मज़बूरी लगने लगी और तुमने खलनायक का लिबास ओढ़ लिया तुम रिश्तों में और,और,थोड़ा और ढूढते रहे और मैं तुममें अपने लिए प्रेम ढूढते रही…….. सुनीता दोहरे….…
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४-अंतिम सुख…..
सुनो क्या तुम्हें पता है मेरे दिल ने एक चालाकी की है छोटी-बड़ी खुशियों को सबमें बाँट दिया अपने लिए एक भी ख़ुशी न समेटी दुःख बहुत कीमती था इसलिए लॉकर में रख संभाल लिया अब गाहे-बगाहे एकांत में दिल के लॉकर को खोलती हूँ पर्त दर पर्त रोज खंगालती हूँ क्यों गलती की जो दुःख को न बांटा दर्द का गोला उठता है सुलगता है बारूद बनके चीख रहा है बम की शक्ल में बदल गया पर फटा नहीं बस अब उस दिन का इन्तजार है काश कोई चिंगारी हवा दे दे और सुलगे, फटे उस लॉकर के चीथड़े हों बस मुझे इन्तजार है इसी अंतिम सुख का…… सुनीता दोहरे ………
५-पवित्र जल…..
ये दिल ठहरा कांच का रोज तुम एतिहात से उठाते हो स्व्क्छ ह्रदय से संवारते हो और गाहे-बगाहे तुम मुझे अपने अश्कों के पवित्र जल से नहलाते हो अपने विशाल ह्रदय की पुकार से इस कमजोर दिल के लिए दुआएं मागते हो इस दिल के प्रति मेरी यूँ ही आस्था रखना कि हे प्रभु इसे टूटने मत देना…… लेकिन तुम ये कहते हुए उन पलों को भूल जाते हो जिन पलों में तुम कहते हो कि तुम्हारी तस्वीर मेरे दिल में है कहीं कोई इसे देख न ले, मेरे करीब न आना मेरा नाम मत लेना, दुनिया जान जायेगी फिर सब टूट जायेगा, मैं संभाल न पाउँगा तुम्हारी वेदना सुनकर कहीं कुछ चटक जाता है कुछ अनकहे ख्वाब एक झटके में बिखर जाते है, और कुछ बंद मुठ्ठी से रेत की तरह फिसल जाते हैं………. सब कब रीत गया पता ही नहीं चला ख्वाब टूटते गए और मै लम्हा-लम्हा बिखरती गयी पर तेरे ख्वाब देखना ना छोड़ा …… सुनीता दोहरे…..
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