जिन्दगी की रफ़्तार एक पवित्र रिश्ते से बंधकर तुम्हारे साथ पवित्रता से चल रही थी कि अचानक तुम बदलने लगे दिन ब दिन तुम्हारा रुखा पन कार्तिक की सर्दी सा एक सिहरन सी दे देता फिर एक दिन अचानक तुम्हरा कहना कि नायक नहीं खलनायक हूँ मैं जब भी कुछ कहना चाहा तो एक ही जवाब नायक नहीं खलनायक हूँ मैं तुम्हारा सच कहना जिसे मेरा मजाक समझना दिन प्रति दिन तुम बदलते रहे हम मौन ठगे से असहाय से अपनी लाचारी पर सिसकते रहे तुम असलियत कहते रहे हैं मैं मजाक समझती रही मैं तुम्हे सच्चा समझ के पूजती रही तुम्हारी इबादत करती रही इन आंसुओं को क्या पता था तुम सच में खलनायक हो तुम्हारी फितरत में बफादारी नहीं क्या नही किया तुम्हारे लिए मैं भी समझती हूँ ,खूब समझती हूँ मैंने सागर को बाँधने की कोशिश की थी पर क्या नदी कभी सागर को बाँध पाई है तुम्हारे खलनायकी रूप में, नदी की पवित्रता न जाने कहाँ खो गयी, अंत हुआ पर दुखद हुआ मैं अविरल अवाक खड़ी रह गयी कुछ न कर सकी नदी की मासूमियत ने सब कुछ न्योछावर कर दिया तुम पर तुममें मिलकर नदी का अस्तित्व कहीं खो गया पर खलनायिकी से मिली बेबसी का दर्द अगर पीकर देखा होता तुमने, तो महसूस होता तुमे कि कितनी मौतें मरनी पड़ती हैं, कल्पना तो करो इन्तजार, लाचारी, उम्मीद, तड़फ, दर्द, बेबसी इनके बीच बैठकर देखा होता कभी तुमने कभी इमानदारी से पूछा होता अपने आपसे तुमने कि तुम्हारे पल-पल का ख्याल रखने वाली आज कितनी बेबस और लाचार है ………….
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