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हां मैं एक नारी हूँ,खूबसूरत डस्टबिन….

sach ka aaina
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(१). हां मैं एक नारी हूँ……..

हां मैं एक नारी हूँ………….
और अगर मैं एक नारी हूँ !
तो मुझे दिखना भी चाहिए एक अबला नारी की तरह !
जैसे मेरे केश घने, लंबे और काले हों !
देह हो बिलकुल सधी कि ना एक इंच कम न एक इंच ज्यादा !
जैसे हो एक खूबसूरत डस्टबिन, जिसमें डाल सकें ये नाक वाले दंभी पुरुष
अपने तन, मन, और ओछे दिमाग का सारा कचरा ! और मैं मुस्कुरा कर कहूँ

……. “प्लीज यूज मी”………
हां मैं एक नारी हूँ और अगर मैं एक नारी हूँ !
तो मेरे वस्त्र मेरा रहन-सहन भी एक दायरे में होना चाहिए !
जरा सा भी पारदर्शी नहीं !
क्योंकि मर्यादा से जरूरी क्या है नारी के लिए !
और मर्यादा कपड़ों में ही होती है !
फिर चाहें वो घर और बाहर वालों से रोज-रोज छली जाये !
और लोग हिकारत भरी नजरों से देखकर कहे,
कि यही है वो जिसका घर में कोई बजूद ही नहीं ! और मैं मुस्करा कर कहूँ

……..कि मैं घर की स्वामिनी हूँ……
हां मैं एक नारी हूँ और अगर मैं एक नारी हूँ !
तो मुझे यह देखकर कदम उठाना चाहिए !
कि लक्ष्मण-रेखा के बाहर रावण है !
तो इसलिए घर में चुपचाप लुटती रहना चाहिए !
क्योंकि मैं एक अबला नारी हूँ !
नारियों की असहाय चुप्पी से ही घर बना रहता है ! और मैं मुस्कराकर कहूँ
……..मुझमें सहने की छमता है …..
हां मैं एक नारी हूँ और अगर मैं एक नारी हूँ !
तो मैं इंसान की तरह अपने दुखों पर रो नहीं सकती !
क्योंकि मुझे हर हाल में आँसू छुपाने चाहिए !
लोग मुझे समझे या फिर मेरा शोषण करें !
शिकायत नहीं करनी है ! क्योंकि अच्छी नहीं लगती !
एक नारी, एक देवी में मनुष्य की कमजोरियां !
जिस तरह धरती मां सहन करती है अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को
मैं भी धरती मां की तरह विशाल ह्रदय की बनूँ और मैं मुस्करा कर कहूँ

………कि मैं धरती मां की बेटी हूँ………
हां मैं एक नारी हूँ और अगर मैं एक नारी हूँ !
तो मुझे उन् सारी परम्पराओं, नियमों, व्रतों कायदों का !
अंधानुकरण करना ही है जिन्हें बनाया गया है !
सिर्फ हमारे लिए कोई भी सवाल उठाए बिना !
पर ये पुरुष स्वयं कितना पालन कर रहे हैं इन नियमों का !
अगर कोई सवाल करूंगी तो हश्र होगा गार्गी और द्रोपदी जैसा
इसलिए मुझे चुप रहना है क्योंकि द्रोपदी की लाज बचाने कृष्णा थे
अब इस कलयुग में न तो कोई क्रष्ण है न कोई राम .
……..सुनीता दोहरे…….

(२). पर सामने तू न था…..
जिन्दगी के उतार चढ़ावों से भरी हुई, ४० साल लम्बी यादें…..इस जिन्दगी के सफ़र ने बहुत कुछ दिया कुछ असहनीय पीडाएं, कुछ अनगिनत चोटें, कुछ खुशियाँ, कुछ तड़फ अपनों से मिलने की या बिछड़ने की , सही और गलत, झूठ और सच की पहचान और कुछ अनायास ही होंठों पर खिलकर आ जाने वाली मुस्कराहट का सबब बन गया ता-उम्र जीने की ख्वाहिश लिए………सूरज की तपिश में एक ठंडक का एहसास कराते वो यादों के काफिले, बस पृष्ठ दर पृष्ठ जिन्दगी की किताब तैयार होती रही जिसमें कुछ खट्टी-मीठी यादों के सुखद पल समेटे जिन्दगी अनवरत चली आ रही है और हम इस किताब के पन्ने पलट कर रोज उन पलों को सहेजते हुए ये सोचते है कि मेरे हिस्से की चांदनी धुंधली क्यों है …………
जो भी स्वप्न देखा वो तुमसे ही जुड़ा था
उन जादुई शब्दों में वेदना थी संवेदना थी
तेरे हांथ को तकिया बना सुकून से न सोई कभी
जिन्दगी के हर पल में मुझे तेरी जरूरत थी
तू सच न था तेरे प्रेम में प्रेम जैसा कुछ न था
दूरियां लिए विरह था शिकायतें थीं एक दर्द था
इस तड़फ में बेकरारी थी इन्तजार था पर तू न था
तेरे ख्वाब थे तेरी यादें थीं पर सामने तू न था !
.…….सुनीता दोहरे …….

(३). वो सोनी होना चाहती थी..

एक दिन प्रेम के हंसी ख्वाब ने
उसकी पलकों को सतरंगी
रंगों की एक कूची पकड़ा दी
बंद आँखों ने एक बुत
को अपने सपनों से रंग दिया
और अपनी मोहब्बत के सारे
बीज उसमें बो दिए …………..

पतझड़ को जैसे सावन मिल गया
जख्मों को जैसे कोई मरहम मिल गया
महिवाल के हांथ में जलता सिगार था
और सोनी के हांथ मोहब्बत की सर्द आह
सोनी की नज्में एक सिगार के धुएं सी
कभी हवा में विलीन होतीं
कभी कानों में मधुर संगीत घोलती……

कभी-कभी सोचती हूँ कि यदि एक बार
उन नज्मों के दर्द को छू लेता वो
तो शायद उसकी मरी हुई मोहब्बत
जिन्दा हो जाती, यकीन तो किया होता
कि वो क्या चाहती थी………

सपनो के वो हसीन रंग कभी
धुंए के छल्ले बन-कर कालीन से बिछ जाते
कभी सूरज की तपिश में झुलस जाते
बस उन स्याह पड़े रिश्तों को अपनी महक से
महिवाल के जिस्म को अपनी रूह में समाकर
वो सोणी होना चाहती थी…..वो सोणी होना चाहती थी ………
सुनीता दोहरे…
{लोकजंग-ब्यूरो} चीफ उत्तर-प्रदेश
विशेष संवाददाता ”ईएनआई” न्यूज़ एजेंसी….

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