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भले ही रोटी सत्ता पक्ष की खाएं लेकिन हक देश का अदा करें

sach ka aaina
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भले ही रोटी सत्ता पक्ष की खाएं लेकिन हक देश का अदा करें
Box …. मैं अपने मीडिया कर्मियों से ये कहना चाहूंगी कि भले ही रोटी सत्ता पक्ष की खाएं लेकिन हक देश का अदा करें क्योंकि राजनेताओं पर से विस्वास खो चुका आम-आदमी मीडिया की तरफ हसरत भरी निगाह से देखता है……

भारत में मीडिया कितना निष्पक्ष और स्वतंत्र हैं इसका उदाहरण तो पिछले दिनों गैंग रेप के विरुद्द हुए जन-आन्दोलन में देखने को मिला…
इस जन-आन्दोलन में मीडिया को किस तरह प्रतिकूल परिस्थितियों से दो चार होना पड़ा.
सरकार की शय पर हुक्मरानों से धमकी मिली कि अगर उन्होंने सरकार के विरुद्द या जन-समर्थन के पक्ष में ज्यादा बोला या लिखा तो उनके वजूद के लिए हानिकारक हो सकता है.
यहाँ तक कि शाही हुक्मरानों ने उनके चैनल बंद करने की भी धमकी दे डाली. भारत में जब-जब मीडिया ने अपनी सच्चाई का परिचय देना चाहा, तब-तब मीडिया को धमकी देकर दबा दिया गया. इन हालातों को देखते हुए मीडिया मजबूर होकर अपनी रोजी-रोटी बचाने के चक्कर में सरकार के मुताबिक ख़बरें दिखाती हैं और अगर किसी ने हिम्मत की भी सरकार के विरुद्द कुछ करने की तो उसे न्यूज़ चैनल से, अखबारों के दफ्तरों से निकाल बाहर किया जाता है. जिसको मद्देनजर रखते हुए मीडिया भी भय के कारण बीच का रास्ता निकालती है. इन बदतर हालातों को देखते हुए मीडिया प्रमुख ये सोचते हैं कि इससे अच्छा है कि पैसा ले लो और वही समाचार दिखाओ जो समाज को सही दर्पण न दिखा सके और जन-आन्दोलन भी पुलिस-प्रशासन की लाठियों का वार झेलकर कोई आवाज न उठा सके.
क्योंकि जन-समर्थन के विरुद्द पुलिस हिंसक हो जाती है, सरकार छुप कर वार करती है, भ्रष्ट नेता विपक्षी पार्टी की कुर्सी हथियाने की सोचते हैं, आम-जनता सड़कों पर कलपती है , मीडिया मजबूरी की आहें भरती है. ऐसे में देश का तो बंटाधार होना ही तय है.
इधर मीडिया के पास केवल दिखाने का पावर होता है सही मायने में तो मजबूरी वश देश की व्यवस्था को मीडिया आँखें बंद करके सरकार की नज़रों से दिखाती है . वो कहते है कि “हांथी के दांत खाने के और दिखाने के और” होते हैं .
इसलिए अपने जमीर को मारकर मीडिया सरकार से मोटा माल लेकर सरकार के मुताबिक़ ख़बरें दिखाना उनकी मजबूरी हो जाती है. क्योंकि बिना पत्रकारिता के चलते उनकी रोजी रोटी पर बन आती है ,
जब हम देश वासी ही अपनी आवाज को सरकार के सामने ठीक से नहीं उठा सकते तो मुझे नहीं लगता कि मीडिया दोषी है तो फिर मीडिया को क्या दोष देना ….अगर दोष देना है तो सरकार को दीजिये. उन भ्रष्टाचारियों को दीजिये जो अपने गुनाहों को छुपाने के लिए अपने दुष्कर्मों का पिटारा बंद करके जनता को उल्टा आइना दिखाने के लिए मीडिया के हाथ -पैर काट देते हैं. और दोष देना है तो सरकार के उन नुमाइंदों को दीजिये, जो अपनी धन, तन, की भूख मिटाने के लिए और बेहिसाब शोहरत पाने के लिए शार्टकट रास्ता अख्तियार करते हैं. और आम-जन की भावनाओं को कुचल कर अपनी ख्वाहिशों का घरौंदा बनाते हैं …
अभी कुछ ही दिनों पहले की बात है कि आज तक के पत्रकार दीपक शर्मा ने कांग्रेसी खुर्शीद की चोरी का पर्दाफाश किया तो आजकल वो कहीं नजर नहीं आ रहे हैं. और इसी तरह आज तक के एडीटर हेड एम् भी पता नहीं कहाँ गायब हो गये उन्हें आजतक से निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने खुर्शीद के पर्दाफाश को दिखाने की मंजूरी दे दी थी…… क्योंकि सिर्फ कहने को मीडिया स्वतन्त्र है और हम भले ही मीडिया की स्वतन्त्रता के ढोल पीटें ……
ठीक इसी तरह आईबीएन7 के वरिष्ठ सम्पादक आशुतोष की खबर (गैग रेप के शांतपूर्ण आन्दोलन को हिंसक बनाने में NSUI “कांग्रेस की युवा शाखा” के सदस्यों का हाँथ है ) तब से वो भी आईबीएन7 पर नहीं दिख रहे……..क्योंकि सिर्फ कहने और देखने को मीडिया स्वतन्त्र है ….
सरकार के डर से जनता की आवाज को किसी भी चैनल का दबा देना और मीडिया की आवाज को हुक्मरानों का दबा देना क्या यही हमारा भविष्य है ? क्या यही हमारा न्याय है ? देश आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है क्योंकि सरकार ने मीडिया को इतना बेबस और मजबूर कर दिया है . इन हालातों को देखते हुए जब एक संवेदनाविहीन मानव संस्कृति का निर्माण होगा तो मीडिया इसका विरोध तो करेगी ही और अगर विरोध करेगी तो टकराव बढ़ेगा और समय के साथ-साथ और भी बढ़ता जायेगा भले ही सरकार धमकी देकर मौन करवा दे लेकिन देश की आत्मा तो मुक्ती के लिए छटपटाएगी जरुर .
आम-जन भले ही मीडिया को दोषी कहे . बात सिर्फ इतनी सी है कि सरकार की मीडिया के प्रति जो दबाब डालने की प्रवत्ति है वो किस हद तक सही है उसमें सच्चाई और गहराई से कई कोणों को समझने की जरुरत है . मीडिया पर इस तरह के दबाब पहली बार सरकार ने नहीं बनाये. सरकार इसके पहले भी किसी न किसी मामले को लेकर दबाब बनाती रही है और खुद पाक-साफ़ होकर मीडिया के चरित्र को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करती रही है अब सवाल ये उठता है कि सरकार क्या सोचती है …क्या कभी मीडिया से जुड़ी जमात ने सरकार के प्रति कोई नफरत की भावना रखी है या फिर मीडिया को सरकार जानबूझ कर बदनाम करने की मंशा पाले हुए है …….
देखा जाये तो सरकार के इस तरह की बेतुकी कार्यवाहियों के चलते जनता के बीच सरकार की छवि को गहरा धक्का पहुँच रहा है . सरकार अपनी कमियों को दूर करने की बजाय जनता की आवाज और मीडिया के कार्यों को दबाने में अपनी उर्जा ख़तम कर रही है. ये सच है कि सरकार अपने अपराधों की मुखर आलोचनाओं को सुनने की सहनशीलता खो चुकी है और इसके तहत सरकार झुंझलाहट भरे आलोकतांत्रिक व्यवहार पर उतर कर मीडिया की स्वतंत्रता पर शिकंजा कसकर उसे मजबूर कर दिया है. सरकार ये भूल चुकी है कि समाज के प्रति भी उनकी कोई जिम्मेदारी है . ये सब जानते हैं कि देश का चौथा स्तम्भ मीडिया देश का गौरव है . सरकार को ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि अगर मीडिया चाह ले तो अपने और समाज के शोषण से मुक्ति व अपने अधिकारों के प्रति आवाज बुलंद करके सरकार को नाकों चने चबवा सकती है. मीडिया किसी को रातों-रात शोहरत की बुलंदी पर पहुंचा सकती है और रातों-रात उसका नामों-निशाँ मिटा सकती है . सच तो ये है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश के हालात जिस तेजी से बदलने चाहिए थे और आम-जन ने जो उम्मीदें लगा रखी थीं वैसा कुछ नहीं हुआ. देश में भ्रष्ट नेताओं, भ्रष्ट सरकार व् भ्रष्ट पुलिस प्रशासन की सांठ-गाँठ ने आम-आदमी के दिलो दिमाग में असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर उसके विश्वास की धज्जियाँ उड़ा कर रख दी है आम-आदमी न्याय पाने की बात तो छोड़ो अपनी व्यथा कहने की स्थिती में नहीं है . लेकिन बधाई का पात्र है हमारे भारतीय लोकतंत्र का चौथा सतम्भ मीडिया. जिसने दर-प्रतिदर अपने निर्भीक व बेबाक कार्य प्रणाली के चलते आम-जन के जख्मों को मरहम लगाने का काम किया है और समाचार पत्र और छोटे पर्दे के माध्यम से आम-जन की बातों को एक आन्दोलन का रूप देने का साहसिक व प्रशंसनीय कार्य किया है. सही मायने में मीडिया अपने कार्यों से आम-जन पर होने वाले अन्याय व अत्याचारों पर अंकुश लगाने का काम करती है . और अब अंत में अपने मीडिया कर्मी भाइयों से निवेदन करती हूँ कि हमारे ऊपर आम-जन के विस्वास की रक्षा का भार है और आपको अपनी सृजनकारी भूमिका को पहचानने की जरुरत है. मैं अपने मीडिया कर्मियों से ये कहना चाहूंगी कि भले ही रोटी सत्ता पक्ष की खाएं लेकिन हक देश का अदा करें ….
मैंने अपनी पत्रकारिता के दौरान हमेशा ये महसूस किया है कि जब भी हम या हमारे मीडिया कर्मी सरकार के विरोध में कोई भी समाचार लिखते है या प्रसारित करते हैं तो उनके सत्यता से पूर्ण कार्यों में रूकावटे सरकार पैदा कर देती है….
और अब अंत में अपने पत्रकार भाइयों के समक्ष कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत करना चाहूंगी. जिन्हें मैंने अपने कार्यकाल के दौरान महसूस किया है. एक सच्चे पत्रकार की आत्मा यही कहती है कि ……….
“अपने किरदार को जब भी जिया मैंने
तो जहर तोहमतों का पिया मैंने
और भी तार-तार हो गया बजूद मेरा
जब भी चाक गिरेबान सिया मैंने”
सच तो ये है कि हिंसा से गलत आरोपों को और साजिशों से सरकार का पुराना नाता है. भारत में मीडिया की स्वतन्त्रता के गिरते हुए पारे का प्रतिशत धरातल पर है. ये कैसा भारत निर्माण हो रहा है. देखा जाये तो देश आज भी गुलाम है और अगर यही हालात रहे तो हमेशा गुलाम रहेगा……
सुनीता दोहरे …
लखनऊ …

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