sach ka aaina
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मानव मन
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कुछ स्निग्ध, स्नेहिल स्पर्श दिया,
कुछ मानव मन की ब्यथा सुनी
मन के उमड़ते उदगारों को,
कुछ टूटे -फूटे कुछ शब्दों को
कैसी विडंबना है सूर्य के तेज की
सूर्य से प्रकाश पा के चंद्रमा,
ग्रहण का भागी बन, सुलगता है
ग्रहण की अवधि में,इस विप्लवी युग में,
मानव मन की,पीड़ा भी सुलगी है
कुछ मानवीय सरगोशिंयां सजीव हुईं
अगर खाक में मिल गई जिंदगी,
तो इमारत सी दिन-रात बोलती
रहेंगीं खंडहरों की खामोशियां
जंजीरों में जकड़े क्यों मानव,
दूर न भागो संघर्षों से, तोड़ दो जंजीर ये
अपने खंडहर से हृदय में,
तनिक पल आराम दो
कुंठा के गलियारों को छोड़
तुम ईश्वर का नाम लो…………..By sunita dohare
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